अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 56/ मन्त्र 6
सूक्त - यमः
देवता - दुःष्वप्ननाशनम्
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - दुःस्वप्नानाशन सूक्त
वि॒द्म ते॒ सर्वाः॑ परि॒जाः पु॒रस्ता॑द्वि॒द्म स्व॑प्न॒यो अ॑धि॒पा इ॒हा ते॑। य॑श॒स्विनो॑ नो॒ यश॑से॒ह पा॑ह्या॒राद्द्वि॒षेभि॒रप॑ याहि दू॒रम् ॥
स्वर सहित पद पाठवि॒द्म। ते॒। सर्वाः॑। प॒रि॒ऽजाः। पु॒रस्ता॑त्। वि॒द्म। स्व॒प्न॒। यः। अ॒धि॒ऽपाः। इ॒ह। ते॒। य॒श॒स्विनः॑। नः॒। यश॑सा। इ॒ह। पा॒हि॒। आ॒रात्। द्वि॒षेभिः॑। अप॑। या॒हि॒। दू॒रम् ॥५६६॥
स्वर रहित मन्त्र
विद्म ते सर्वाः परिजाः पुरस्ताद्विद्म स्वप्नयो अधिपा इहा ते। यशस्विनो नो यशसेह पाह्याराद्द्विषेभिरप याहि दूरम् ॥
स्वर रहित पद पाठविद्म। ते। सर्वाः। परिऽजाः। पुरस्तात्। विद्म। स्वप्न। यः। अधिऽपाः। इह। ते। यशस्विनः। नः। यशसा। इह। पाहि। आरात्। द्विषेभिः। अप। याहि। दूरम् ॥५६६॥
अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 56; मन्त्र » 6
विषय - विद्वान को अप्रमाद का उपदेश।
भावार्थ -
हे (स्वप्न) स्वप्न, निद्रालस्य ! (ते) तेरे (सर्वाः) सब (परिजाः) साथ साथ उत्पन्न होने वाली प्रवृत्तियों और दुष्परिणामों को हम (पुरस्तात्) पहले ही से (विद्म) जानें (यः) जो (ते) तेरा (अधिपाः) अधिष्ठाता तुझे अपने वश में रखने वाला है, उसको भी (विद्म) हम जानते हैं। (इह) इस लोक में, यहां (नः) हम (यशस्विनः) यशस्वी पुरुषों को (यशसा) यश या भोग्य, उपादेय या विनोदकारी अंश से (पाहि) पालन कर। और (द्विषेभिः) अपने अप्रीति कर, बुरे अथवा (विषेभिः) अपने बन्धनकारी अंशों सहित तू (दूरम् याहि) दूर चला जा।
टिप्पणी -
(च०) ‘द्वेषिभिः’, ‘द्विषोभिः’, ‘द्वेषेभिः’ इति पाठाः। ‘द्विषोभिः’। इति सायणः। ‘परिजाः’ उत्पत्तिस्थानमिति पीट० लाक्ष०। ‘भाराद् विषेभिः’ इति पैप्प० सं०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - यमऋषिः। दुःखनाशनो देवता। त्रिष्टुभः। षडृचं सूक्तम्॥
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