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अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 65/ मन्त्र 1
हरिः॑ सुप॒र्णो दिव॒मारु॑हो॒ऽर्चिषा॒ ये त्वा॒ दिप्स॑न्ति॒ दिव॑मु॒त्पत॑न्तम्। अव॒ तां ज॑हि॒ हर॑सा जातवे॒दोऽबि॑भ्यदु॒ग्रोऽर्चिषा॒ दिव॒मा रो॑ह सूर्य ॥
स्वर सहित पद पाठहरिः॑। सु॒ऽप॒र्णः। दिव॑म्। आ। अ॒रु॒हः॒। अ॒र्चिषा॑। ये। त्वा॒। दिप्स॑न्ति। दिव॑म्। उ॒त्ऽपत॑न्तम्। अव॑। तान्। ज॒हि॒। हर॑सा। जा॒त॒ऽवे॒दः॒। अबि॑भ्यत्। उ॒ग्रः। अ॒र्चिषा॑। दिव॑म्। आ। रो॒ह॒। सू॒र्य॒ ॥६५.१॥
स्वर रहित मन्त्र
हरिः सुपर्णो दिवमारुहोऽर्चिषा ये त्वा दिप्सन्ति दिवमुत्पतन्तम्। अव तां जहि हरसा जातवेदोऽबिभ्यदुग्रोऽर्चिषा दिवमा रोह सूर्य ॥
स्वर रहित पद पाठहरिः। सुऽपर्णः। दिवम्। आ। अरुहः। अर्चिषा। ये। त्वा। दिप्सन्ति। दिवम्। उत्ऽपतन्तम्। अव। तान्। जहि। हरसा। जातऽवेदः। अबिभ्यत्। उग्रः। अर्चिषा। दिवम्। आ। रोह। सूर्य ॥६५.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 65; मन्त्र » 1
विषय - उच्चपद प्राप्ति के साधन का उपदेश।
भावार्थ -
हे (जातवेदः) प्रज्ञावान् ! ऐश्वर्यवान् ! हे (सूर्य) सूर्य ! सूर्य के समान तेजस्विन् ! तू (हरिः) अन्धकार को नाश करके (सुपर्णः) उत्तम ज्ञानवान् होकर (अर्चिषा) अपनी ज्ञानमय दीप्ति से (दिवम् आरुहः) द्यौलोक, तेजोमय पद, मोक्ष या ईश्वर को प्राप्त हो। उस समय (ये) जो भी (दिवम्) उस तेजोमय ब्रह्मपद को (उत्पतन्तम्) प्राप्त करते हुए (त्वा) तुझको (दिप्सन्ति) बिनाश करते हों, तुझे अपने उत्तम मार्ग से भ्रष्ट करना चाहते हैं तू (तान्) उनको (हरसा) अपने संहारकारी क्रोध या तेज से (अव जहि) विनष्ट कर डाल। और (अबिभ्यत्) निर्भय होकर (उग्रः) प्रचण्ड, उग्र, सदा बलवान् रहकर (अर्चिषा) अपने तेजोयल से (दिवम् आरोह) सूर्य जिस प्रकार अपने प्रचण्ड ताप सहित मध्य आकाश में चढ़ जाता है उसी प्रकार तु भी उस महान्, उच्च, परम तेजोमय ब्रह्मपद को प्राप्त हो।
इसी प्रकार राजा को भी यही उपदेश है—तू शत्रुओं का संहारक होने से ‘हरि’ उत्तम पालन शक्ति से युक्त होने से ‘सुपर्ण’ है। वह तू अपने तेज से (दिवम् आ रोह) सूर्य के समान उच्च पद को प्राप्त हो। जो तेरा नाश करना चाहते हैं, उनको अपने (हरसा) क्रोध से विनष्ट कर। और तु स्वयं निर्भय, बलवान् होकर, अपने तेजसे द्यौलोक, उच्च पद पर आरूढ़ हो।
टिप्पणी -
‘बिभ्यदुग्र्यो’ इति क्वचित्।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - ब्रह्मा ऋषिः। जातवेदाः सूर्यश्च देवते। जगती। एकर्चं सूक्तम्॥
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