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अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 66/ मन्त्र 1
सूक्त - ब्रह्मा
देवता - जातवेदाः, सूर्यः, वज्रः
छन्दः - अतिजगती
सूक्तम् - असुरक्षयणम् सूक्त
अयो॑जाला॒ असु॑रा मा॒यिनो॑ऽय॒स्मयैः॒ पाशै॑र॒ङ्किनो॒ ये चर॑न्ति। तांस्ते॑ रन्धयामि॒ हर॑सा जातवेदः स॒हस्रऋ॑ष्टिः स॒पत्ना॑न्प्रमृ॒णन्पा॑हि॒ वज्रः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठअयः॑ऽजालाः। असु॑राः। मा॒यिनः॑। अ॒य॒स्मयैः॑। पाशैः॑। अ॒ङ्किनः॑। ये। चर॑न्ति। तान्। ते॒। र॒न्ध॒या॒मि॒। हर॑सा। जा॒त॒ऽवे॒दः॒। स॒हस्र॑ऽऋष्टिः। स॒ऽपत्ना॑न्। प्र॒ऽमृ॒णन्। पा॒हि॒। वज्रः॑ ॥६६.१॥
स्वर रहित मन्त्र
अयोजाला असुरा मायिनोऽयस्मयैः पाशैरङ्किनो ये चरन्ति। तांस्ते रन्धयामि हरसा जातवेदः सहस्रऋष्टिः सपत्नान्प्रमृणन्पाहि वज्रः ॥
स्वर रहित पद पाठअयःऽजालाः। असुराः। मायिनः। अयस्मयैः। पाशैः। अङ्किनः। ये। चरन्ति। तान्। ते। रन्धयामि। हरसा। जातऽवेदः। सहस्रऽऋष्टिः। सऽपत्नान्। प्रऽमृणन्। पाहि। वज्रः ॥६६.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 66; मन्त्र » 1
विषय - दुष्टदमन और प्रजा पालन।
भावार्थ -
(अयोजालाः) लोहे के जाल धारण करने वाले (मायिनः) माया, विद्या के जानने वाले (असुराः) असुर शक्तिशाली लोग (अङ्किनः) अङ्कों से युक्त होकर (अयस्मयैः) लोहे के बने (पाशैः) पाशों सहित (चरन्ति) विचरते हैं। हे (जातवेदः) जातवेदः, अग्ने ! राजन् ! (ते) तेरे (हरसा) तेजोमय बल से (तान् रन्धयामि) उन को वश करूं, उनको भून डालूं। और तू (सहस्र-ऋष्टिः) हज़ारों भालों वाले या ‘ऋष्टि’ नामक घातक शस्त्रों से सुसज्जित होकर स्वयं (वज्रः) शत्रुओं के वर्जन करने में समर्थ, विद्युत् के समान बलशाली होकर (सपत्नात्) शत्रुओं को (प्रमृणन्) विध्वंस करता हुआ (पाहि) हमारी रक्षा कर।
टिप्पणी -
(च०) ‘सहस्रसृष्टिः’, ह्रुष्टिः, हृष्टि, दृष्टि, रिष्टि, ह्रष्टिः, इति नाना पाठाः। ‘वाहि’ इति बहुत्र।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - ब्रह्मा ऋषिः। जातवेदः सूर्यः वज्रेश्च देवताः। अतिजगती एकर्चं सूक्तम्।
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