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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 105

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 105/ मन्त्र 3
    सूक्त - नृमेधः देवता - इन्द्रः छन्दः - बृहती सूक्तम् - सूक्त-१०५

    इ॒त ऊ॒ती वो॑ अ॒जरं॑ प्रहे॒तार॒मप्र॑हितम्। आ॒शुं जेता॑रं॒ हेता॑रं र॒थीत॑म॒मतू॑र्तं तुग्र्या॒वृध॑म् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इ॒त: । ऊ॒ती । व॒: । अ॒जर॑म् । प्र॒ऽहे॒तार॑म् । अप्र॑ऽहितम् ॥ आ॒शुम् । जेता॑रम् । हेता॑रम् । र॒थिऽत॑मम् । अतू॑र्तम् । तु॒ग्र्य॒ऽवृध॑म् ॥१०५.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इत ऊती वो अजरं प्रहेतारमप्रहितम्। आशुं जेतारं हेतारं रथीतममतूर्तं तुग्र्यावृधम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इत: । ऊती । व: । अजरम् । प्रऽहेतारम् । अप्रऽहितम् ॥ आशुम् । जेतारम् । हेतारम् । रथिऽतमम् । अतूर्तम् । तुग्र्यऽवृधम् ॥१०५.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 105; मन्त्र » 3

    भावार्थ -
    हे प्रजाजनो ! (अजरम्) कभी क्षीण या निर्बल न होकर विद्यमान, सदा उद्यत, (प्रहेतारम्) शत्रु को मार भगाने वाले, (अप्रहितम्) आप कभी पराधीन न हुए (आशुं) शीघ्रगामी, (जेतारम्) विजयशील, (हेतारम्) शत्रु के स्वयं नाश करने वाले (रथीतमम्) रथियों में सर्वश्रेष्ठ (अतूर्तम्) कभी नष्ट या ताड़ित न होने वाले, न पछाड़ खाने वाले अपराजित (तुग्र्यावृधम्) शत्रु नाशकारी वारे सेनाओं के हितकर बल को बढ़ाने वाले पुरुष को (वः) आप लोग (ऊतये) अपनी रक्षा के लिये (इतः) नियुक्त करो।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - नृमेध ऋषिः। इन्द्रो देवता। प्रगाथाः। पञ्चर्चं सूक्तम्॥

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