अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 105/ मन्त्र 2
अनु॑ ते॒ शुष्मं॑ तु॒रय॑न्तमीयतुः क्षो॒णी शिशुं॒ न मा॒तरा॑। विश्वा॑स्ते॒ स्पृधः॑ श्नथयन्त म॒न्यवे॑ वृ॒त्रं यदि॑न्द्र॒ तूर्व॑सि ॥
स्वर सहित पद पाठअनु॑ । ते॒ । शुष्म॑म् । तु॒रय॑न्तम् । ई॒य॒तु॒: । क्षो॒णी इति॑ । शिशु॑म् । न । मा॒तरा॑ ॥ विश्वा॑: । ते॒ । स्पृध॑: । श्न॒थ॒य॒न्त॒ । म॒न्यवे॑ । वृ॒त्रम् । यत् । इ॒न्द्र॒ । तूर्व॑सि ॥१०५.२॥
स्वर रहित मन्त्र
अनु ते शुष्मं तुरयन्तमीयतुः क्षोणी शिशुं न मातरा। विश्वास्ते स्पृधः श्नथयन्त मन्यवे वृत्रं यदिन्द्र तूर्वसि ॥
स्वर रहित पद पाठअनु । ते । शुष्मम् । तुरयन्तम् । ईयतु: । क्षोणी इति । शिशुम् । न । मातरा ॥ विश्वा: । ते । स्पृध: । श्नथयन्त । मन्यवे । वृत्रम् । यत् । इन्द्र । तूर्वसि ॥१०५.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 105; मन्त्र » 2
विषय - राजा, सेनापति।
भावार्थ -
हे (इन्द्र) शत्रुनाशक राजन् ! (मातरा शिशुं न) माता और पिता दोनों जिस प्रकार बालक के पीछे चलते हैं उसी प्रकार (तुरयन्तम्) शत्रुओं के नाशक (ते शुष्मम्) तेरे बल के (अनु) पीछे पीछे (क्षोणी) शासकवर्ग और प्रजावर्ग दोनों आकाश और पृथिवी के समान वर्तमान बड़े और छोटे सभी (ईयतुः) चलते हैं। (यत्) जब तू (वृत्रं) विघ्नकारी का (तूर्वसि) विनाश करता है तब ही (विश्वाः स्पृधः) सब स्पर्धा करने वाले शत्रुगण (ते मन्यवे) तेरे क्रोध के आगे (श्नथयन्त) शिथिल होजाते हैं, दब जाते हैं और कोई विपरीत उद्योग नहीं करते हैं।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - नृमेध ऋषिः। इन्द्रो देवता। प्रगाथाः। पञ्चर्चं सूक्तम्॥
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