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अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 106/ मन्त्र 2
सूक्त - गोषूक्त्यश्वसूक्तिनौ
देवता - इन्द्रः
छन्दः - उष्णिक्
सूक्तम् - सूक्त-१०६
तव॒ द्यौरि॑न्द्र॒ पौंस्यं॑ पृथि॒वी व॑र्धति॒ श्रवः॑। त्वामापः॒ पर्व॑तासश्च हिन्विरे ॥
स्वर सहित पद पाठतव॑ । द्यौ: । इ॒न्द्र॒ । पौंस्य॑म् । पृ॒थि॒वी । व॒र्ध॒ति॒ । श्रव॑: ॥ त्वाम् । आप॑: । पर्व॑तास: । च॒ । हि॒न्वि॒रे॒ ॥१०६.२॥
स्वर रहित मन्त्र
तव द्यौरिन्द्र पौंस्यं पृथिवी वर्धति श्रवः। त्वामापः पर्वतासश्च हिन्विरे ॥
स्वर रहित पद पाठतव । द्यौ: । इन्द्र । पौंस्यम् । पृथिवी । वर्धति । श्रव: ॥ त्वाम् । आप: । पर्वतास: । च । हिन्विरे ॥१०६.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 106; मन्त्र » 2
विषय - परमेश्वर।
भावार्थ -
हे (इन्द्र) परमेश्वर (द्यौः) यह महान् आकाश और तारेगण और (पृथिवी) पृथिवी (तव पौंस्यं) तेरे पौरुष बल और (श्रवः) कीर्ति को (वर्धति) बढ़ाते हैं। और (आपः) समस्त जल, मेघ, नदी समुद्र आदि और (पर्वतासः च) हिमाचल आदि पर्वत (त्वां हिन्विरे) तुझे ही बतला रहे हैं। मानो तेरी महिमा गा रहे हैं।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - गोषूक्त्यश्वसूक्तिना वृषी। इन्द्रो देवता। उष्णिक् छन्दः। तृचं सूक्तम्॥
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