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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 122

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 122/ मन्त्र 2
    सूक्त - शुनःशेपः देवता - इन्द्रः छन्दः - गायत्री सूक्तम् - सूक्त-१२२

    आ घ॒ त्वावा॒न्त्मना॒प्त स्तो॒तृभ्यो॑ धृष्णविया॒नः। ऋ॒णोरक्षं॒ न च॑क्र्यो: ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ । घ॒ । त्वाऽवा॑न् । त्मना॑ । आ॒प्त: । स्तो॒तृऽभ्य॑: । धृ॒ष्णो॒ इति॑ । इ॒या॒न: ॥ ऋ॒णो: । अक्ष॑म् । न । च॒क्र्यो॑: ॥१२२.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आ घ त्वावान्त्मनाप्त स्तोतृभ्यो धृष्णवियानः। ऋणोरक्षं न चक्र्यो: ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आ । घ । त्वाऽवान् । त्मना । आप्त: । स्तोतृऽभ्य: । धृष्णो इति । इयान: ॥ ऋणो: । अक्षम् । न । चक्र्यो: ॥१२२.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 122; मन्त्र » 2

    भावार्थ -
    हे (धृष्णो) विपक्ष के धर्षण करने हारे ! अति प्रगल्भ ! राजन् ! (चक्रयोः) रथ के चक्रों का (अक्षं न) अक्ष जिस प्रकार अरों द्वारा चक्रों को अपने में धारण करके रथ को तो सम्भालता ही है और स्वयं भी अपने को सम्भाले रहता है इसी प्रकार तू भी अपने ऊपर स्वयं और पर राष्ट्र के चक्रों को अपने नीति बल से धारण करके भी तु (त्वावान्) अपने जैसा ही अद्वितीय होकर, (त्मना आप्तः) स्वयं अपने आत्म सामर्थ्य से स्थिर होकर (स्तोतृभ्यः) स्तोता, विद्वान् पुरुषों के लिये (इयानः) प्रार्थित होकर उनको अभिमत पदार्थ (आ ऋणोः) प्राप्त कराता है।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - शुनःशेप ऋषिः। इन्द्रो देवता। गायत्र्यः। तृचं सूक्तम्॥

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