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अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 122/ मन्त्र 1
रे॒वती॑र्नः सध॒माद॒ इन्द्रे॑ सन्तु तु॒विवा॑जाः। क्षु॒मन्तो॒ याभि॒र्मदे॑म ॥
स्वर सहित पद पाठरे॒वती॑: । न॒: । स॒ध॒ऽमादे॑ । इन्द्रे॑ । स॒न्तु॒ । तु॒विऽवा॑जा: ॥ क्षु॒ऽमन्त॑: । याभि॑: । मदे॑म ॥१२२.१॥
स्वर रहित मन्त्र
रेवतीर्नः सधमाद इन्द्रे सन्तु तुविवाजाः। क्षुमन्तो याभिर्मदेम ॥
स्वर रहित पद पाठरेवती: । न: । सधऽमादे । इन्द्रे । सन्तु । तुविऽवाजा: ॥ क्षुऽमन्त: । याभि: । मदेम ॥१२२.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 122; मन्त्र » 1
विषय - ऐश्वर्यवान् राष्ट्र, गृहस्थ और राजा।
भावार्थ -
(क्षुमन्तः) अन्न धन आदि से सम्पन्न होकर (याभिः) जिन स्त्रियों और उत्तम प्रजाओं के साथ हम (मदेम) आनन्दयुक्त और प्रसन्न रहें वे (तुविवाजाः) बहुत बलवान्, ज्ञानवान् और (रेवतीः) ऐश्वर्य और सौभाग्यवती होकर (इन्द्रे) ऐश्वर्यचान् राष्ट्र या गृहस्थ में, (नः) हमारे (सधमादः) साथ आनन्द, और हर्ष तृप्ति, तुष्टि लाभ करने वाली (सन्तु) हों।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - शुनःशेप ऋषिः। इन्द्रो देवता। गायत्र्यः। तृचं सूक्तम्॥
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