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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 125

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 125/ मन्त्र 4
    सूक्त - सुर्कीतिः देवता - अश्विनीकुमारौ छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - सूक्त-१२५

    यु॒वं सु॒राम॑मश्विना॒ नमु॑चावासु॒रे सचा॑। वि॑पिपा॒ना शु॑भस्पती॒ इन्द्रं॒ कर्म॑स्वावतम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यु॒वम् । सु॒राम॑म् । अ॒श्वि॒ना॒ । नमु॑चौ । आ॒सु॒रे । सचा॑ ॥ वि॒ऽपि॒पा॒ना । शु॒भ॒: । प॒ती॒ इति॑ । इन्द्र॑म् । कर्म॑ऽसु । आ॒व॒त॒म् ॥१२५.४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    युवं सुराममश्विना नमुचावासुरे सचा। विपिपाना शुभस्पती इन्द्रं कर्मस्वावतम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    युवम् । सुरामम् । अश्विना । नमुचौ । आसुरे । सचा ॥ विऽपिपाना । शुभ: । पती इति । इन्द्रम् । कर्मऽसु । आवतम् ॥१२५.४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 125; मन्त्र » 4

    भावार्थ -
    हे (अश्विना) व्यापक अधिकार वाले दो बड़े अधिकारी पुरुषों ! (नमुचौ) कभी भी न छोड़ने योग्य (असुरे) असुर, दुष्ट पुरुषों के हनन कार्य में (सचा) सदा साथ रहकर (युवम्) तुम दोनों (शुभस्पती) शुभ कार्यों के पालक होकर (सुरामम्) राज्य लक्ष्मी के साथ वर्तमान राष्ट्र की (विपिपाना) नाना कर्मों में रक्षा करते हुए (कर्मसु) संमस्त कर्मों में (इन्दं) मुख्य राजा की (अवतम्) रक्षा करो।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - कीर्ति र्ऋषिः। इन्द्रः, ४, ५ अश्विनौ च देवते। त्रिष्टुभः, ४ अनुष्टुप्। सप्तर्चं सूक्तम्।

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