अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 142/ मन्त्र 2
प्र बो॑धयोषो अ॒श्विना॒ प्र दे॑वि सूनृते महि। प्र य॑ज्ञहोतरानु॒षक्प्र मदा॑य॒ श्रवो॑ बृ॒हत् ॥
स्वर सहित पद पाठप्र । बो॒ध॒य॒ । उ॒ष॒: । अ॒श्विना॑ । प्र । दे॒वि॒ । सू॒नृ॒ते॒ । म॒हि॒ ॥ प्र । य॒ज्ञ॒ऽहो॒त॒: । आ॒नु॒षक् । प्र । मदा॑य । श्रव॑: । बृ॒हत् ॥१४२.२॥
स्वर रहित मन्त्र
प्र बोधयोषो अश्विना प्र देवि सूनृते महि। प्र यज्ञहोतरानुषक्प्र मदाय श्रवो बृहत् ॥
स्वर रहित पद पाठप्र । बोधय । उष: । अश्विना । प्र । देवि । सूनृते । महि ॥ प्र । यज्ञऽहोत: । आनुषक् । प्र । मदाय । श्रव: । बृहत् ॥१४२.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 142; मन्त्र » 2
विषय - वेदवाणी।
भावार्थ -
हे (उषः) पापों को दग्ध करनेहारी उषः ! हे (महि) पूजनीय ! हे (सूनृते) उत्तम सत्य ज्ञान को धारण करने वाली वेदवाणि ! हे (देवि) ज्ञान प्रकाश देने वाली ! तू (अश्विना) स्त्री पुरुष नर नारी दोनों को (प्र बोधय) भली प्रकार उन्नति के लिये जगा दे, प्रबुद्ध कर, उनको ज्ञानवान् बना। हे (यज्ञहोतः) यज्ञ, परस्पर सुसंगत व्यवहारों के प्रवर्त्तक राजन् ! तू भी (प्र) नर नारी दोनों को उत्तम ज्ञानवान् बना, चेता, (आनुषक् प्र) तू निरन्तर जगा। (मदाय) हर्ष प्राप्त करने के लिये (बृहत् श्रवः) जो बढ़ा भारी यश, ज्ञान और अन्न है, उसको (प्र) प्रदान कर।
टिप्पणी -
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - शशकर्ण ऋषिः। अश्विनौ देवते -१-४ अनुष्टुभः। ५, ६, गायत्र्यौ। षडृचं सूक्तम्॥
इस भाष्य को एडिट करें