अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 142/ मन्त्र 1
अभु॑त्स्यु॒ प्र दे॒व्या सा॒कं वा॒चाह॑म॒श्विनोः॑। व्या॑वर्दे॒व्या म॒तिं वि रा॒तिं मर्त्ये॑भ्यः ॥
स्वर सहित पद पाठअभु॑त्सि । ऊं॒ इति॑ । प्र । दे॒व्या । सा॒कम् । वा॒चा । अ॒हम् । अ॒श्विनो॑: ॥ वि । आ॒व॒: । दे॒वि॒ । आ । मतिम् । वि । रा॒तिम् ।मर्त्ये॑भ्य: ॥१४२.१॥
स्वर रहित मन्त्र
अभुत्स्यु प्र देव्या साकं वाचाहमश्विनोः। व्यावर्देव्या मतिं वि रातिं मर्त्येभ्यः ॥
स्वर रहित पद पाठअभुत्सि । ऊं इति । प्र । देव्या । साकम् । वाचा । अहम् । अश्विनो: ॥ वि । आव: । देवि । आ । मतिम् । वि । रातिम् ।मर्त्येभ्य: ॥१४२.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 142; मन्त्र » 1
विषय - वेदवाणी।
भावार्थ -
(अश्विनोः) दो अश्वियों दिन रात्रि के बीच प्रकट (देव्या) प्रकाशयुक्त उषा के समान, एवं प्राण अपान दोनों के बीच प्रकट हुई वाणी के समान (देव्या) बल और ज्ञान प्रदान करने वाले उपदेशक और अध्यापकों की (दिव्या वाचा) दैवी वाणी, आज्ञा या उपदेशमयी वाणी से (अहम् अभुत्स्यु) मैं बोध प्राप्त करूं। (देवी) वह प्रकाश-ज्ञानवाली वाणी, (मर्त्येभ्यः) मनुष्यों को (मतिम्) मनन योग्य ज्ञान और (रातिम्) शिष्यों को प्रदान करने योग्य प्रवचन भी (वि आवः) विविध प्रकार से प्रकट करती है।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - शशकर्ण ऋषिः। अश्विनौ देवते -१-४ अनुष्टुभः। ५, ६, गायत्र्यौ। षडृचं सूक्तम्॥
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