अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 27/ मन्त्र 5
सूक्त - गोषूक्त्यश्वसूक्तिनौ
देवता - इन्द्रः
छन्दः - गायत्री
सूक्तम् - सूक्त-२७
य॒ज्ञ इन्द्र॑मवर्धय॒द्यद्भूमिं॒ व्य॑वर्तयत्। च॑क्रा॒ण ओ॑प॒शं दि॒वि ॥
स्वर सहित पद पाठय॒ज्ञ: । इन्द्र॑म् । अ॒व॒र्ध॒य॒त् । यत् । भूमि॑म् । वि । अव॑र्तयत् ॥ च॒क्रा॒ण: । ओ॒प॒शम् । दि॒वि ॥२७.५॥
स्वर रहित मन्त्र
यज्ञ इन्द्रमवर्धयद्यद्भूमिं व्यवर्तयत्। चक्राण ओपशं दिवि ॥
स्वर रहित पद पाठयज्ञ: । इन्द्रम् । अवर्धयत् । यत् । भूमिम् । वि । अवर्तयत् ॥ चक्राण: । ओपशम् । दिवि ॥२७.५॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 27; मन्त्र » 5
विषय - धनाढ्यों के प्रति राजा का कर्त्तव्य।
भावार्थ -
(यज्ञः) यज्ञ, परस्पर का संग या व्यवस्थित राष्ट्र (इन्द्रम्) इन्द्र को (अवर्धयत्) बढ़ाता है, (यद्) जब वह और (दिवि) ज्ञानपूर्वक व्यवहार या राजसभा में (ओपशं) सब प्रकार से स्थिति (चक्राणः) करता हुआ (भूमिम्) भूमि को (वि-अवर्त्तयत्) विविध उपायों से काम में लाता है।
आधिभौतिक में—(यत्) जब (यज्ञः इन्द्रम् अवर्धयत्) यज्ञ इन्द की जलप्रद शक्ति की वृद्धि करता है (दिवि ओपशं) आकाश में विद्यमान मेघ को (चक्राणः) उत्पन्न करता हुआ उसको (भूमिं व्यवर्त्तयत्) भूमि पर डालता है।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - गोषूक्त्यश्वसूक्तिना वृषी। इन्द्रो देवता। गायत्र्यः। षडृचं सूक्तम्॥
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