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अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 33/ मन्त्र 2
प्रोग्रां पी॒तिं वृष्ण॑ इयर्मि स॒त्यां प्र॒यै सु॒तस्य॑ हर्यश्व॒ तुभ्य॑म्। इन्द्र॒ धेना॑भिरि॒ह मा॑दयस्व धी॒भिर्विश्वा॑भिः॒ शच्या॑ गृणा॒नः ॥
स्वर सहित पद पाठप्र । उ॒ग्राम् । पी॒तिम् । वृष्णे॑ । इ॒य॒र्मि॒ । स॒त्याम् । प्र॒ऽयै । सु॒तस्य॑ । ह॒रि॒ऽअ॒श्व॒ । तुभ्य॑म् ॥ इन्द्र॑ । धेना॑भि: । इ॒ह । मा॒द॒य॒स्व॒ । धी॒भि: । विश्वा॑भि: । शच्या॑ । गृ॒णा॒न: ॥३३.२॥
स्वर रहित मन्त्र
प्रोग्रां पीतिं वृष्ण इयर्मि सत्यां प्रयै सुतस्य हर्यश्व तुभ्यम्। इन्द्र धेनाभिरिह मादयस्व धीभिर्विश्वाभिः शच्या गृणानः ॥
स्वर रहित पद पाठप्र । उग्राम् । पीतिम् । वृष्णे । इयर्मि । सत्याम् । प्रऽयै । सुतस्य । हरिऽअश्व । तुभ्यम् ॥ इन्द्र । धेनाभि: । इह । मादयस्व । धीभि: । विश्वाभि: । शच्या । गृणान: ॥३३.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 33; मन्त्र » 2
विषय - राजा और परमेश्वर का वर्णन।
भावार्थ -
हे (हर्यश्व) वेगवान् अश्वों से युक्त, राजन् ! मैं (प्रयै) उत्कृष्ट मार्ग से मनन करने के लिये (तुभ्यं वृष्णे) बलवान तेरे लिये (सुतस्य) उत्पादित सत्य ज्ञान की (उग्राम्) बलवती, (सत्याम्) सत्य पूर्ण, (पीतिम्) पान योग्य ज्ञान धारा को (प्र इयर्मि) प्राप्त कराता हूं। हे (इन्द्र) ऐश्वर्यवन् राजन् ! तू (शच्या) अपनी शक्ति के कारण (विश्वाभिः) समस्त प्रकार की (धीभिः) स्तुतियों से (गृणानः) स्तुति किया जाकर (इह) यहां (धेनाभिः) तुष्टिकारी रस धाराओं या वाणियों से (मादयस्व) स्वयं तृप्त हो, अन्यों को भी तृप्त कर।
परमेश्वर पक्ष में—हे (हर्यश्व) व्याप्त शक्तियों से युक्त ! (तुभ्यं वृष्णे) सब सुखों के वर्षक तेरे लिये (प्रयै) अपनी ही उत्कृष्ट गति की प्राप्ति के लिये मैं (उग्रां पीतिं प्र इयर्मि) वलवती पीति अर्थात् स्नेहपूर्ण स्वीकृति को जगाता हूं। (शच्या) महती शक्ति के कारण ही (धीभिः) समस्त धारणावती बुद्धियों द्वारा (गृणानः) स्तुति किया जाकर (विश्वाभिः धेनाभिः मादयस्व) समस्त रस धाराओं से जीवों को तृप्त कर।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - अष्टको वैश्वामित्र ऋपिः। इन्द्रो देवता। त्रिष्टुभः। तृचं सूक्तम्॥
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