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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 39

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 39/ मन्त्र 2
    सूक्त - गोषूक्तिः, अश्वसूक्तिः देवता - इन्द्रः छन्दः - गायत्री सूक्तम् - सूक्त-३९

    व्यन्तरि॑क्षमतिर॒न्मदे॒ सोम॑स्य रोच॒ना। इन्द्रो॒ यदभि॑नद्व॒लम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वि । अ॒न्तरि॑क्षम् । अ॒ति॒र॒त् । मदे॑ । सोम॑स्य । रो॒च॒ना ॥ इन्द्र॑: । यत् । अभि॑नत् । व॒लम् ॥३९.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    व्यन्तरिक्षमतिरन्मदे सोमस्य रोचना। इन्द्रो यदभिनद्वलम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    वि । अन्तरिक्षम् । अतिरत् । मदे । सोमस्य । रोचना ॥ इन्द्र: । यत् । अभिनत् । वलम् ॥३९.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 39; मन्त्र » 2

    भावार्थ -
    (इन्द्रः) इन्द्र वायु (यत्) जब (बलम्) आवरणकारी मेघ को (अभिनत्) भेदता है, छिन्न भिन्न करता है और जब (इन्द्रः) ऐश्वर्यवान् राजा (वलम्) नगर रोंधने वाले शत्रु को छिन्न भिन्न करता है तब वह मानो (सोमस्य मदे) सोम, सर्वप्रेरक सूर्य के हर्ष में वायु (अन्तरिक्षम् वि अतिरित्) अन्तरिक्ष को व्याप लेता है। और इसी प्रकार वह राजा (सोमस्य मदे रोचना) राष्ट्र के समृद्धि के हर्ष में तृप्त होकर, अति कान्तिमान होकर (अन्तरिक्षम्) शत्रु और अपने बीच के समस्त राजागण को (वि अतिरत्) विविध उपायों से पराजित करता है अध्यात्म में—(इन्द्रः यत् वलम् अभिनत्) इन्द्र, ज्ञानी आत्मा जब आवरणकारी अज्ञान रूप तम का लक्ष्य करता है, तब (सोमस्य मदे रोचना) सोम, सर्वप्रेरक ब्रह्मरस के हर्ष से अति उज्ज्वल होकर (अन्तरिक्षम्) अपने अन्तःकरण को (वि अतिरत्) विविध रूप से वश करता है।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - १ मधुच्छन्दाः २-५ इरिम्बिठिश्च ऋषी। इन्द्रो देवता। गायत्र्यः। पञ्चर्चं सूक्तम्॥

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