अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 39/ मन्त्र 4
सूक्त - गोषूक्तिः, अश्वसूक्तिः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - गायत्री
सूक्तम् - सूक्त-३९
इन्द्रे॑ण रोच॒ना दि॒वो दृ॒ढानि॑ दृंहि॒तानि॑ च। स्थि॒राणि॒ न प॑रा॒णुदे॑ ॥
स्वर सहित पद पाठइन्द्रे॑ण । रो॒च॒ना । दि॒व: । दृ॒ह्लानि॑ । दृं॒हि॒तानि॑ । च॒ ॥ स्थि॒राणि॑ । न । प॒रा॒ऽनुदे॑ ॥३९.४॥
स्वर रहित मन्त्र
इन्द्रेण रोचना दिवो दृढानि दृंहितानि च। स्थिराणि न पराणुदे ॥
स्वर रहित पद पाठइन्द्रेण । रोचना । दिव: । दृह्लानि । दृंहितानि । च ॥ स्थिराणि । न । पराऽनुदे ॥३९.४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 39; मन्त्र » 4
विषय - ईश्वर और राजा।
भावार्थ -
(इन्द्रेण) परमेश्वर ने (दिवः) आकाश के (रोचना) प्रकाशमान सूर्य (दृढानि) दृढ़, अभेद्य बनाये और (दृंहितानि च) उन को दृढ़ता से स्थापित किया है। वे अपने स्थान और मार्ग से नहीं विचलित होते। वे (न पराणुदे) फिर न परे हटने के लिये ही (स्थिराणि) स्थिर किये गये हैं। इसी प्रकार अध्यात्म में—(दिवः) ज्ञानमार्ग में (रोचना) प्रकाशित सिद्धान्त ज्ञानी आत्मा स्थिर सत्यों को स्थापित करता है। और वे (न पराणुदे स्थिराणि) न त्यागने के लिये स्थिर किये जाते हैं। राज-पक्ष में—(इन्द्रेण दिवः रोचना) राजा अपने उत्तम राज्य के उच्च कोटि पर विराजमान पदाधिकारियों को दृढ़ मजबूत बनाता और स्थिर नियत करता है। (न पराणुदे) शत्रुओं से पराजित न होने के लिये ही उनको स्थिर नियत करता है।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - १ मधुच्छन्दाः २-५ इरिम्बिठिश्च ऋषी। इन्द्रो देवता। गायत्र्यः। पञ्चर्चं सूक्तम्॥
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