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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 42

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 42/ मन्त्र 3
    सूक्त - कुरुसुतिः देवता - इन्द्रः छन्दः - गायत्री सूक्तम् - सूक्त-४२

    उ॑त्तिष्ठ॒न्नोज॑सा स॒ह पी॒त्वी शिप्रे॑ अवेपयः। सोम॑मिन्द्र च॒मू सु॒तम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उ॒त्ऽतिष्ठ॑न् । ओज॑सा । स॒ह । पी॒त्वी । शिप्र इति॑ । अ॒वे॒प॒य॒: ॥ सोम॑म् । इ॒न्द्र॒ । च॒मू इति॑ । सु॒तम् ॥४२.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उत्तिष्ठन्नोजसा सह पीत्वी शिप्रे अवेपयः। सोममिन्द्र चमू सुतम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उत्ऽतिष्ठन् । ओजसा । सह । पीत्वी । शिप्र इति । अवेपय: ॥ सोमम् । इन्द्र । चमू इति । सुतम् ॥४२.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 42; मन्त्र » 3

    भावार्थ -
    जिस प्रकार (सुतम्) तैयार किये हुए रसको (पीत्वी) पान करके कोई वीर पुरुष (उत्तिष्ठन्) उठता हुआ (शिप्रे अवेपयः) अपने दोनों दाढें तृप्त होकर हिलाता है उसी प्रकार हे (इन्द्र) ऐश्वर्यवन् ! प्रभो ! राजन् ! तू (चमू) अपनी और शत्रु की दो सेनाओं के बीच संग्राम द्वारा (सुतम्) प्राप्त किये हुए (सोम) ऐश्वर्यप्रद राष्ट्र या राजपद को (पीत्वी) प्राप्त करके (शिप्रे) अपने बलशाली सेनाओं को (ओजसा) अपने बल पराक्रम से उठता हुआ (अवेपयः) कंपा। परमेश्वर या आत्मा के पक्ष में—(चमू) प्राण और अपान दोनों के बीच में (सुतम्) ध्यान योग से प्राप्त (सोमम्) ब्रह्मरस को पान करके हे इन्द्र आत्मन् (ओजसा उत् तिष्ठन्) अपने ज्ञानबल से ऊपर मुक्ति मार्ग में उठता हुआ (शिप्रे अवेपयः) बाह्य और आभ्यन्तर कर्म बन्धनों को कंपाकर झाड़ देता है।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - कुरुसुतिः काण्व ऋषिः। इन्द्रो देवता। गायत्र्यः। तृचं सूक्तम्॥ ‘कुरुस्तुतिः’ इति क्वचित्।

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