Loading...
अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 43

काण्ड के आधार पर मन्त्र चुनें

  • अथर्ववेद का मुख्य पृष्ठ
  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 43/ मन्त्र 1
    सूक्त - त्रिशोकः देवता - इन्द्रः छन्दः - गायत्री सूक्तम् - सूक्त-४३

    भि॒न्धि विश्वा॒ अप॒ द्विषः॒ बाधो॑ ज॒ही मृधः॑। वसु॑ स्पा॒र्हं तदा भ॑र ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    भि॒न्धि । विश्वा॑: । अप॑ । द्विष॑: । परि॑ । बाध॑: । ज॒हि । मृध॑: ॥ वसु॑ । स्पा॒र्हम् । तत । आ । भ॒र॒ ॥४३.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    भिन्धि विश्वा अप द्विषः बाधो जही मृधः। वसु स्पार्हं तदा भर ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    भिन्धि । विश्वा: । अप । द्विष: । परि । बाध: । जहि । मृध: ॥ वसु । स्पार्हम् । तत । आ । भर ॥४३.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 43; मन्त्र » 1

    भावार्थ -
    हे राजन् ! त् (विश्वाद्विषः) समस्त अप्रीतिकर, द्वेष युक्त शत्रुओं को (अप भिन्धि) दूर ही से भेद डाल। उनमें भेद नीति का प्रयोग कर। उनको फोड़ डाल। और (बाधः) बाधा या पीड़ा पहुंचाने चाले (मृधः) संग्रामकारी सेनाओं को (परि जहि) सब प्रकार से विनाश कर और (स्पार्हं) अभिलाषा करने योग्य (तत् वसु) उन नाना ऐश्वर्य को (आ भर) प्राप्त करा।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - त्रिशोक ऋषिः। इन्द्रो देवता। गायध्यः। तृचं सूक्तम्॥

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top