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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 43

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 43/ मन्त्र 2
    सूक्त - त्रिशोकः देवता - इन्द्रः छन्दः - गायत्री सूक्तम् - सूक्त-४३

    यद्वी॒डावि॑न्द्र॒ यत्स्थि॒रे यत्पर्शा॑ने॒ परा॑भृतम्। वसु॑ स्पा॒र्हं तदा भ॑र ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यत् । वी॒लौ । इ॒न्द्र॒ । यत् । स्थि॒रे । यत् । पर्शा॑ने । परा॑भृतम् । वसु॑ । स्पा॒र्हम् । तत् । आ । भ॒र॒ ॥४३.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यद्वीडाविन्द्र यत्स्थिरे यत्पर्शाने पराभृतम्। वसु स्पार्हं तदा भर ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यत् । वीलौ । इन्द्र । यत् । स्थिरे । यत् । पर्शाने । पराभृतम् । वसु । स्पार्हम् । तत् । आ । भर ॥४३.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 43; मन्त्र » 2

    भावार्थ -
    (यत्) जो ऐश्वर्य, बल, धैर्य और ज्ञान (वीलौ) वीर्यवान् बलवान् पुरुष में (यत् स्थिरे) और जो बल या ऐश्वर्य स्थिरता रहने वाले और (यत् स्थिरे) जो ज्ञान ऐश्वर्य (पर्शाने) विवेकशील विद्वान् में (पराभृतम्) दूर दूर देशों से ला ला कर संचित होता है (तन्) वह नाना प्रकार का (स्पार्हं वसु) अभिलाषा योग्य ऐश्वर्य हमें (आभर) प्राप्त करा।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - त्रिशोक ऋषिः। इन्द्रो देवता। गायध्यः। तृचं सूक्तम्॥

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