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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 48

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 48/ मन्त्र 2
    सूक्त - खिलः देवता - गौः, सूर्यः छन्दः - गायत्री सूक्तम् - सूक्त-४८

    ता अ॑र्षन्ति शु॒भ्रियः॑ पृञ्च॒तीर्वर्च॑सा॒ प्रि॒यः॑। जा॒तं जा॒त्रीर्यथा॑ हृ॒दा ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ता: । अ॑र्षन्त‍ि । शु॒भ्रिय॒: । पृञ्च॑न्ती॒: । वर्च॑सा । प्रि॒य: ॥ जा॒तम् । जा॒त्री: । यथा॑ । हृ॒दा ॥४८.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ता अर्षन्ति शुभ्रियः पृञ्चतीर्वर्चसा प्रियः। जातं जात्रीर्यथा हृदा ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ता: । अर्षन्त‍ि । शुभ्रिय: । पृञ्चन्ती: । वर्चसा । प्रिय: ॥ जातम् । जात्री: । यथा । हृदा ॥४८.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 48; मन्त्र » 2

    भावार्थ -
    (ताः) वे वेदवाणियें (वर्चसा) अपने ज्ञानरूप तेज से (प्रियः) पूर्ण अर्थ का प्रकाश करनेहारी (शुभ्रियः) पदार्थ का भासन कराने वाली, उज्ज्वल स्वरूप होकर (अर्षन्ति) उस परमेश्वर को (हृदा) अपने मर्मार्थ से ऐसे पकड़ती हैं जैसे (जात्रीः) जनने वाली माताएं (जातं) अपने पुत्र को (हृदा) अपने हृदय से (अर्षन्ति) चिपटा लेती हैं।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - १-३ इन्द्रः। ४-६ सार्पराज्ञी सूर्यो वा देवता। गायत्र्यः। षडृचं सूक्तम्॥ ‘अभित्वा’ इति द्वाभ्यां सूक्ताभ्यां खिलौ इति बृहत् सर्वा०।

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