अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 49/ मन्त्र 1
यच्छ॒क्रा वाच॒मारु॑हन्न॒न्तरि॑क्षं सिषासथः। सं दे॒वा अ॑मद॒न्वृषा॑ ॥
स्वर सहित पद पाठयत् । श॒क्रा: । वाच॒म् । आरु॑हन् । अ॒न्तरि॑क्षम् । सिषासथ: ॥ सम् । दे॒वा: । अ॑म॒दन् । वृषा॑ ॥४९.१॥
स्वर रहित मन्त्र
यच्छक्रा वाचमारुहन्नन्तरिक्षं सिषासथः। सं देवा अमदन्वृषा ॥
स्वर रहित पद पाठयत् । शक्रा: । वाचम् । आरुहन् । अन्तरिक्षम् । सिषासथ: ॥ सम् । देवा: । अमदन् । वृषा ॥४९.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 49; मन्त्र » 1
विषय - ईश्वरोपासना।
भावार्थ -
सेवकलालसम्मतः ग्रीफिथसम्मतश्च पाठस्तु—
भा०- प्रथम पाठ के अनुसार—(शकाः) शक्तिशाली राजागण के समान शक्तिशाली योगीजन (यत्) जब भी (वाचम्) वेदवाणी का (आरुहन्) आश्रय लेते हैं हे ज्ञानी पुरुषो ! तब तब आप लोग (अन्तरिक्षम्) अपने भीतरी आत्मा को ही (सिषासथः) प्राप्त होते हो। तब (देवाः) प्राणगण और (वृषा) सुखों का वर्षक भीतरी बलवान् आत्मा दोनों (सम् अमदन्) एक साथ आनन्द, प्रसन्न एवं तृप्त होते हैं।
भा०-द्वितीय पाठ के अनुसार—(अन्तरिक्षं = अन्तर्यक्षं) भीतरी उपास्य देव, हृदय में व्यापक आत्मा और हृदयस्थ परमेश्वर को हे (वाचः) वाणियो ! जब तुम (सिषासतीः) प्राप्त करती हुई, उस पर लगती हुई, उसको लक्ष्य करती हुई (शक्रम्) उस शक्तिमान् को (आरुहन्) पहुंचती हो, उसके पद का वर्णन करती हो तब (देवः) वह साक्षाद् द्रष्टा भीतरी आत्मा या परमेश्वर (वृषा) अति बलवान्, आनन्दरस का वर्षक धर्ममेघ होकर (सम् अमदद्) खूब आनन्द, प्रसन्न एवं संतृप्त होता है।
‘यच्छक्राः’, ‘वाचमारुहन्तन्न’, ‘सिषासथ’, ‘सिषासतः’ इति पाठभेदाः।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - ऋषिः—१,३ खिलः, ४,५ नोधाः, ६,७ मेध्यातिथिः॥ देवता—इन्द्रः॥ छन्दः- १-३ गायत्री, ४-७ बार्हतः प्रगाथः (समाबृहती+विषमा—सतोबृहती)॥
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