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अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 53/ मन्त्र 1
क ईं॑ वेद सु॒ते सचा॒ पिब॑न्तं॒ कद्वयो॑ दधे। अ॒यं यः पुरो॑ विभि॒नत्त्योज॑सा मन्दा॒नः शि॒प्र्यन्ध॑सः ॥
स्वर सहित पद पाठक: । ई॒म् । वे॒द॒ । सु॒ते । सचा॑ । पिब॑न्तम् । कत् । वय॑: । द॒धे॒ ॥ अ॒यम् । य: । पुर॑:। वि॒ऽभि॒नत्ति॑ । ओज॑सा । म॒न्दा॒न: । शि॒प्री । अन्ध॑स: ॥ ५३.१॥
स्वर रहित मन्त्र
क ईं वेद सुते सचा पिबन्तं कद्वयो दधे। अयं यः पुरो विभिनत्त्योजसा मन्दानः शिप्र्यन्धसः ॥
स्वर रहित पद पाठक: । ईम् । वेद । सुते । सचा । पिबन्तम् । कत् । वय: । दधे ॥ अयम् । य: । पुर:। विऽभिनत्ति । ओजसा । मन्दान: । शिप्री । अन्धस: ॥ ५३.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 53; मन्त्र » 1
विषय - ईश्वर दर्शन।
भावार्थ -
(सुते) समस्त उत्पन्न जगत् में (सचा) एक ही साथ या अन्य देव, दिव्य पदार्थों के साथ (ईं) इस समस्त विश्व को (पिबन्तम्) पान ग्रहण, अपने में आदान करते हुए को (कः वेद) कौन जानता है ? और कौन जानता है कि (कद वयः दधे) वह कितना आयु या कितना जीवन सामर्थ्य धारण करता है। (अयं) यह (शिप्री) ज्ञानवान् और बलवान् होकर ही (अन्धसः) अन्न से या अमृत से (मन्दानः) सदा तृप्त और अन्यों को भी तृप्त करने में समर्थ होकर (ओजसा) अपन बल पराक्रम से सेनापति जिस प्रकार (पुरः विभिनित्ति) शत्रु दुर्गों को तोड़ डालता है उसी प्रकार अपने ज्ञान बल से (पुरः) भक्तों के देह पुरियों को नाश करता है, उनको मुक्त करता है।
अध्यात्म में—यह नित्य आत्मा अपने ही ज्ञानबल से (पुरः विभिनत्ति) सत्व, रजस्, तमस् तीनों से बने देह बन्धनों को तोड़ता है।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - मेधातिथिः काण्व ऋषिः। इन्दो देवता। बृहत्यः। तृचं सूक्तम्॥
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