Sidebar
अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 53/ मन्त्र 2
दा॒ना मृ॒गो न वा॑र॒णः पु॑रु॒त्रा च॒रथं॑ दधे। नकि॑ष्ट्वा॒ नि य॑म॒दा सु॒ते ग॑मो म॒हाँश्च॑र॒स्योज॑सा ॥
स्वर सहित पद पाठदा॒ना । मृ॒ग:। वा॒र॒ण: । पु॒रु॒ऽत्रा । च॒रथ॑म् । द॒धे॒ ॥ नकि॑: । त्वा॒ । नि । य॒म॒त् । आ । सु॒ते । ग॒म॒: । म॒हान् । च॒र॒सि॒ । ओज॑सा ॥५३.२॥
स्वर रहित मन्त्र
दाना मृगो न वारणः पुरुत्रा चरथं दधे। नकिष्ट्वा नि यमदा सुते गमो महाँश्चरस्योजसा ॥
स्वर रहित पद पाठदाना । मृग:। वारण: । पुरुऽत्रा । चरथम् । दधे ॥ नकि: । त्वा । नि । यमत् । आ । सुते । गम: । महान् । चरसि । ओजसा ॥५३.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 53; मन्त्र » 2
विषय - ईश्वर दर्शन।
भावार्थ -
(मृगः वारणः न) चैनैला हाथी (दाना) मद जलों के कारण (पुरुत्र) बहुतसे स्थलों पर (चरथं दधे) विचरण करता है। उसी प्रकार यह इन्द्र जीव (दाना) अपन शुभाशुभ कर्मों द्वारा (पुरुन वरथं दधे) बहुत से शरीरों में विचरण करता है अथवा (चरथं दधे) नाना फल भोग प्राप्त करता है। हे इन्द्र ! आत्मन् (खा) तुझको (नकिः) कोई भी नहीं (नियमत्) बांध सकता। (सुते आगमः) सवन किये सोम के समान योगादि साधनों से सम्पादित इस सोम रूप ब्रह्म रस के निमित्त (आगमः) तु प्राप्त हो और (घोजसा महान्) बलवीर्य से महान् होकर (चरसि) विचरण कर।
टिप्पणी -
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - मेधातिथिः काण्व ऋषिः। इन्दो देवता। बृहत्यः। तृचं सूक्तम्॥
इस भाष्य को एडिट करें