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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 58

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 58/ मन्त्र 4
    सूक्त - भरद्वाजः देवता - सूर्यः छन्दः - प्रगाथः सूक्तम् - सूक्त-५८

    बट्सू॑र्य॒ श्रव॑सा म॒हाँ अ॑सि स॒त्रा दे॑व म॒हाँ अ॑सि। म॒ह्ना दे॒वाना॑मसु॒र्य: पु॒रोहि॑तो वि॒भु ज्योति॒रदा॑भ्यम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    बट् । सू॒र्य॒ । श्रव॑सा । म॒हान् । अ॒सि॒ । स॒त्रा । दे॒व॒ । म॒हान् । अ॒सि॒ ॥ मह्ना । दे॒वाना॑म् । अ॒सू॒र्य: । पु॒र:ऽहि॑त: । वि॒ऽभु । ज्योति॑: । अदा॑भ्यम् ।५८.४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    बट्सूर्य श्रवसा महाँ असि सत्रा देव महाँ असि। मह्ना देवानामसुर्य: पुरोहितो विभु ज्योतिरदाभ्यम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    बट् । सूर्य । श्रवसा । महान् । असि । सत्रा । देव । महान् । असि ॥ मह्ना । देवानाम् । असूर्य: । पुर:ऽहित: । विऽभु । ज्योति: । अदाभ्यम् ।५८.४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 58; मन्त्र » 4

    भावार्थ -
    हे (सूर्य) सबके प्रेरक परमेश्वर, सूर्य के समान सबके जीवनाधार ! तू (श्रवसा) तेज, कीर्त्ति, बल और ज्ञान से (बट्) सत्य ही (महान् असि) सबसे बड़ा है। (सत्रा) निश्चय से हे (देव) विजिगीषो ! राजन् ! देव, देदीप्यमान ! हे द्रष्टः ! तू (महान् असि) महान्, सबसे बड़ा है। तू (मह्ना) अपने महान् सामर्थ्य से (देवानाम्) समस्त देव, दिव्य शक्तियों, अग्नि, जल, पृथिवी सूर्यादि लोकों और पदार्थों में (असुर्यः) प्राणों में रमण करने वाले जीवों का हितकारी और (पुरोहितः) सबसे पूर्व विद्यमान रहा है। तू ही (विभु) सर्वत्र व्यापक और विविध प्रकार से विद्यमान (अदाभ्यम्) अविनाशी, नित्य, ध्रुव, (ज्योतिः) प्रकाशस्वरूप है।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - १, २ नृमेधः। ३, ४ भरद्वाजः इन्द्रः। ४ सूर्यश्च देवते। प्रगाथः। चतुऋचं सूक्तम्॥

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