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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 59

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 59/ मन्त्र 3
    सूक्त - वसिष्ठः देवता - इन्द्रः छन्दः - प्रगाथः सूक्तम् - सूक्त-५९

    उदिन्न्व॑स्य रिच्य॒तेंऽशो॒ धनं॒ न जि॒ग्युषः॑। य इन्द्रो॒ हरि॑वा॒न्न द॑भन्ति॒ तं रि॑पो॒ दक्षं॑ दधाति सो॒मिनि॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उत् । इत् । नु । अ॒स्य॒ । रि॒च्य॒ते॒ । अंश॑: । धन॑म् । न । जि॒ग्युष॑: ॥ य: । इन्द्र॑: । हरि॑ऽवान् । न । द॒भ॒न्ति॒ । तम् । रिप॑: । दक्ष॑म् । द॒धा॒ति॒ । सो॒मिनि॑ ॥५९.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उदिन्न्वस्य रिच्यतेंऽशो धनं न जिग्युषः। य इन्द्रो हरिवान्न दभन्ति तं रिपो दक्षं दधाति सोमिनि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उत् । इत् । नु । अस्य । रिच्यते । अंश: । धनम् । न । जिग्युष: ॥ य: । इन्द्र: । हरिऽवान् । न । दभन्ति । तम् । रिप: । दक्षम् । दधाति । सोमिनि ॥५९.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 59; मन्त्र » 3

    भावार्थ -
    (जिग्युषः धनं न) विजयशील राजा का धन ऐश्वर्य जिस प्रकार बराबर बढ़ा करता है उसी प्रकार (अस्य) इस परमेश्वर का भी (अंशः) व्यापक सामर्थ्य और ऐश्वर्य भी (इत् नु उद् रिच्यते) क्या बढ़ता ही चला जाता है। क्या कोई सीमा नहीं ! (यः) जो (इन्द्रः) ऐश्वर्यवान् परमेश्वर (हरिवान्) हरणशील इन्द्रियों पर विजय करने वाले योगी के समान समस्त शक्तियों पर, घोड़ों पर, सारथी या महारथी के समान वश करने वाला है (तं) उसको (रिपः) पाप (न दभन्ति) नहीं सताते। प्रत्युत वह परमेश्वर (सोमिनि) सोम, राष्ट्रैश्वर्यवान् राजा के समान सोम, आत्मा के वशयिता या ब्रह्मानन्द रसपान करने वाले आत्मवान् योगी को (दक्षं दधाति) बल प्रदान करता है।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - वसिष्ठ ऋषिः। इन्द्रो देवता। चतुऋचं सूक्तम्॥

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