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अथर्ववेद के काण्ड - 20 के सूक्त 59 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 59/ मन्त्र 3
    ऋषिः - वसिष्ठः देवता - इन्द्रः छन्दः - प्रगाथः सूक्तम् - सूक्त-५९
    62

    उदिन्न्व॑स्य रिच्य॒तेंऽशो॒ धनं॒ न जि॒ग्युषः॑। य इन्द्रो॒ हरि॑वा॒न्न द॑भन्ति॒ तं रि॑पो॒ दक्षं॑ दधाति सो॒मिनि॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उत् । इत् । नु । अ॒स्य॒ । रि॒च्य॒ते॒ । अंश॑: । धन॑म् । न । जि॒ग्युष॑: ॥ य: । इन्द्र॑: । हरि॑ऽवान् । न । द॒भ॒न्ति॒ । तम् । रिप॑: । दक्ष॑म् । द॒धा॒ति॒ । सो॒मिनि॑ ॥५९.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उदिन्न्वस्य रिच्यतेंऽशो धनं न जिग्युषः। य इन्द्रो हरिवान्न दभन्ति तं रिपो दक्षं दधाति सोमिनि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उत् । इत् । नु । अस्य । रिच्यते । अंश: । धनम् । न । जिग्युष: ॥ य: । इन्द्र: । हरिऽवान् । न । दभन्ति । तम् । रिप: । दक्षम् । दधाति । सोमिनि ॥५९.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 59; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    ३-४ राजा और प्रजा के कर्तव्य का उपदेश।

    पदार्थ

    (अस्य) उस [राजा] का (इत्) ही (अंशः) भाग (जिग्युषः) विजयी वीर के (धनं न) धन के समान (नु) शीघ्र (उत् रिच्यते) बढ़ता जाता है (यः) जो (हरिवान्) श्रेष्ठ मनुष्योंवाला (इन्द्रः) इन्द्र [बड़े ऐश्वर्यवाला राजा] (सोमिनि) तत्त्व रसवाले व्यवहार में (दक्षम्) बल को (दधाति) लगाता है, और (तम्) उस [राजा] को (रिपः) वैरी लोग (न) नहीं (दभन्ति) सताते हैं ॥३॥

    भावार्थ

    जो राजा अपने बल को श्रेष्ठ व्यवहारो में लगाता है, वह राज्य में उन्नति करके प्रतिष्ठा पाता है ॥३॥

    टिप्पणी

    मन्त्र ३, ४ ऋग्वेद में है-७।३२।१२, १३ ॥ ३−(उत्) आधिक्ये (इत्) एव (नु) क्षिप्रम् (अस्य) राज्ञः (रिच्यते) अधिको भवति (अंशः) भागः (धनम्) (न) इव (जिग्युषः) जि जये-क्वसु। जयशीलस्य (यः) (इन्द्रः) परमैश्वर्यवान् राजा (हरिवान्) प्रशस्तमनुष्यैर्युक्तः (न) निषेधे (दभन्ति) हिंसन्ति (तम्) राजानम् (रिपः) रिपवः। शत्रवः (दक्षम्) बलम् (दधाति) धरति (सोमिनि) तत्त्वरसवति व्यवहारे ॥

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    विषय

    इन्द्रः-हरिवान्-सोमी

    पदार्थ

    १. (जिग्युषः धनं न) = विनयशील पुरुष के धन के समान (अस्य) = इस पुरुष का (य:) = जोकि (इन्द्र:) = जितेन्द्रिय बनता है, उस जितेन्द्रिय पुरुष का (अंश:) = अंश (नु) = अब (इत्) = निश्चय से (उत् रिच्यते) = उद्रिक्त होता चलता है-इसका अंश बढ़ता ही जाता है। पिता की सम्पत्ति में भाग को 'अंश' कहते हैं। प्रभु पिता हैं। उनकी सम्पत्ति में इस जितेन्द्रिय पुरुष का भाग बढ़ता ही जाता है, अर्थात् इसका जीवन अधिक और अधिक दिव्य होता चलता है। २. [यः]-जो (हरिवान्) = जितेन्द्रियता द्वारा सोम-रक्षण करता हुआ प्रशस्त इन्द्रियोंवाला बनता है, (तम्) उस प्रशस्तेन्द्रियाश्वोवाले पुरुष को (रिपः न दभन्ति) = शत्रु हिसित नहीं करते। यह रोग व वासनारूप शत्रुओं का शिकार नहीं होता। वे प्रभु (सोमिनि) = इस सोमरक्षक पुरुष में (दक्षं दधाति) = बल की स्थापना करते हैं।

    भावार्थ

    जो जितेन्द्रिय बनता है-उसमें प्रभु की दिव्यता का अंश बढ़ता जाता है। जो प्रशस्त इन्द्रियाश्वोंवाला बनता है उसे रोग व वासनाएँ हिंसित नहीं कर पाती। सोमरक्षक पुरुष में बल का वर्धन होता है।

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    भाषार्थ

    (अस्य) इस उपासक का (अंशः) आध्यात्मिक धन अंशरूप में शनैः-शनैः, (उद् इत् नु रिच्यते) निश्चय से बढ़ता ही जाता है, (न) जैसे कि (जिग्युषः) विजयी राजा का (धनम्) धन (उद् रिच्यते) बढ़ता जाता है। (यः) जो उपासक (हरिवान्) प्रत्याहार आदि योग-साधनाओं से सम्पन्न है, उसे (रिपः) पाप (न दभन्ति) नहीं दबाते। (इन्द्रः) परमेश्वर (सोमिनि) भक्तिरसवाले उपासक में (दक्षम्) प्रगति और वृद्धि का (दधाति) आधान करता है।

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    विषय

    ईश्वरार्चना।

    भावार्थ

    (जिग्युषः धनं न) विजयशील राजा का धन ऐश्वर्य जिस प्रकार बराबर बढ़ा करता है उसी प्रकार (अस्य) इस परमेश्वर का भी (अंशः) व्यापक सामर्थ्य और ऐश्वर्य भी (इत् नु उद् रिच्यते) क्या बढ़ता ही चला जाता है। क्या कोई सीमा नहीं ! (यः) जो (इन्द्रः) ऐश्वर्यवान् परमेश्वर (हरिवान्) हरणशील इन्द्रियों पर विजय करने वाले योगी के समान समस्त शक्तियों पर, घोड़ों पर, सारथी या महारथी के समान वश करने वाला है (तं) उसको (रिपः) पाप (न दभन्ति) नहीं सताते। प्रत्युत वह परमेश्वर (सोमिनि) सोम, राष्ट्रैश्वर्यवान् राजा के समान सोम, आत्मा के वशयिता या ब्रह्मानन्द रसपान करने वाले आत्मवान् योगी को (दक्षं दधाति) बल प्रदान करता है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वसिष्ठ ऋषिः। इन्द्रो देवता। चतुऋचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Indra Devata

    Meaning

    High rises the victor’s share of excellence as his wealth of life increases when Indra, guardian protector of the brave, vests his love of victory and soma-sublimity with the will and expertise of yajnic living. And then no enemies can ever defeat and destroy him.

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    Translation

    Like the wealth of the victorious man the all-pervading power of this Almighty God surely crosses over all. To Him Almighty who is the lord of humanity the evils and violence can not subdue. He gives strength to him who is compitent in Yoga.

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    Translation

    Like the wealth of the victorious man the all-pervading power of this Almighty God surely crosses over all. To Him Almighty who is the lord of humanity the evils and violence cannot subdue. He gives strength to him who is competent in Yoga.

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    Translation

    His All-pervading Prowess and Glory goes on excelling like the spoils of the victorious. No foibles and drawbacks overpower that mighty Lord, Who is the master of mobile forces. He invests the sacrificer with all strength and dexterity.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    मन्त्र ३, ४ ऋग्वेद में है-७।३२।१२, १३ ॥ ३−(उत्) आधिक्ये (इत्) एव (नु) क्षिप्रम् (अस्य) राज्ञः (रिच्यते) अधिको भवति (अंशः) भागः (धनम्) (न) इव (जिग्युषः) जि जये-क्वसु। जयशीलस्य (यः) (इन्द्रः) परमैश्वर्यवान् राजा (हरिवान्) प्रशस्तमनुष्यैर्युक्तः (न) निषेधे (दभन्ति) हिंसन्ति (तम्) राजानम् (रिपः) रिपवः। शत्रवः (दक्षम्) बलम् (दधाति) धरति (सोमिनि) तत्त्वरसवति व्यवहारे ॥

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    बंगाली (2)

    मन्त्र विषय

    ৩-৪ রাজপ্রজাকর্তব্যোপদেশঃ

    भाषार्थ

    (অস্য) তাঁর [রাজার] (ইৎ)(অংশঃ) অংশ (জিগ্যুষঃ) বিজয়ী বীরের (ধনং ন) ধনের সমান (নু) শীঘ্রই (উৎ রিচ্যতে) বৃদ্ধিপ্রাপ্ত হয়, (যঃ) যিনি (হরিবান্) শ্রেষ্ঠ মনুষ্যযুক্ত (ইন্দ্রঃ) ইন্দ্র [পরম ঐশ্বর্যশালী রাজা] (সোমিনি) তত্ত্ব রসযুক্ত ব্যবহারে (দক্ষম্) বল (দধাতি) ধারণ করেন, এবং (তম্) তাঁকে [রাজাকে] (রিপঃ) শত্রুগণ (ন) না (দভন্তি) উৎপীড়িত করে॥৩॥

    भावार्थ

    যে রাজা নিজ বল শ্রেষ্ঠ ব্যবহারে প্রযুক্ত করেন, তিনি রাজ্যে উন্নতি সাধন করে প্রতিষ্ঠা লাভ করেন ॥৩॥ মন্ত্র ৩, ৪ ঋগ্বেদে আছে-৭।৩২।১২, ১৩ ॥

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    भाषार्थ

    (অস্য) এই উপাসকের (অংশঃ) আধ্যাত্মিক ধন অংশরূপে শনৈঃ-শনৈঃ, (উদ্ ইৎ নু রিচ্যতে) নিশ্চিতরূপে বর্ধিত হতে থাকে, (ন) যেমন (জিগ্যুষঃ) বিজয়ী রাজার (ধনম্) ধন (উদ্ রিচ্যতে) বর্ধিত হতে থাকে। (যঃ) যে উপাসক (হরিবান্) প্রত্যাহার আদি যোগ-সাধনাসম্পন্ন, তাঁকে (রিপঃ) পাপ (ন দভন্তি) দমন করে না। (ইন্দ্রঃ) পরমেশ্বর (সোমিনি) ভক্তিরসযুক্ত/ভক্তিরসসম্পন্ন উপাসকের মধ্যে (দক্ষম্) প্রগতি এবং বৃদ্ধির (দধাতি) আধান করেন।

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