अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 59/ मन्त्र 4
मन्त्र॒मख॑र्वं॒ सुधि॑तं सु॒पेश॑सं॒ दधा॑त य॒ज्ञिये॒ष्वा। पू॒र्वीश्च॒न प्रसि॑तयस्तरन्ति॒ तं य इन्द्रे॒ कर्म॑णा॒ भुव॑त् ॥
स्वर सहित पद पाठमन्त्र॑म् । अख॑र्वम् । सुऽधि॑तम् । सु॒ऽपेश॑सम् । दधा॑त । य॒ज्ञिये॑षु । आ ॥ पू॒र्वी: । च॒न । प्रऽसि॑तय: । त॒र॒न्ति॒ । तम् । य: । इन्द्रे॑ । कर्म॑णा । भुव॑त् ॥५९.४॥
स्वर रहित मन्त्र
मन्त्रमखर्वं सुधितं सुपेशसं दधात यज्ञियेष्वा। पूर्वीश्चन प्रसितयस्तरन्ति तं य इन्द्रे कर्मणा भुवत् ॥
स्वर रहित पद पाठमन्त्रम् । अखर्वम् । सुऽधितम् । सुऽपेशसम् । दधात । यज्ञियेषु । आ ॥ पूर्वी: । चन । प्रऽसितय: । तरन्ति । तम् । य: । इन्द्रे । कर्मणा । भुवत् ॥५९.४॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
३-४ राजा और प्रजा के कर्तव्य का उपदेश।
पदार्थ
[हे मनुष्यो !] (अखर्वम्) अनीच [धार्मिक], (सुधितम्) अच्छे प्रकार व्यवस्था किये गये, (सुपेशसम्) बहुत सोना आदि धन करनेवाले (मन्त्रम्) मन्त्र [मन्तव्य विचार] को (यज्ञियेषु) पूजायोग्य व्यवहारों में (आ) सब ओर से (दधात्) धारण करो। (पूर्वीः) प्राचीन (चन) ही (प्रसितयः) उत्तम प्रबन्ध (तम्) उस मनुष्य को (तरन्ति) पार लगाते हैं, (यः) जो पुरुष (इन्द्रे) इन्द्र [बड़े ऐश्वर्यवाले राजा] के निमित्त (कर्मणा) क्रिया के साथ (भुवत्) होवे ॥४॥
भावार्थ
राजा और विद्वान् जन मिलकर गूढ़ विचारों के साथ सर्वहितकारी काम करके आपस में प्रीति बढ़ावें ॥४॥
टिप्पणी
४−(मन्त्रम्) मन्तव्यं विचारम् (अखर्वम्) खर्व गतौ दर्पे च-अच्। अनीचम्। धार्मिकम् (सुधितम्) दधातेः-क्त। सुविहितम्। सुष्ठु व्यवस्थापितम् (सुपेशसम्) पेशो हिरण्यनाम-निघ० १।२। सुपेशांसि शोभनानि सुवर्णादिधनानि यस्मात् तम् (दधात) धत्त (यज्ञियेषु) पूजार्हेषु व्यवहारेषु (आ) समन्तात् (पूर्वीः) प्राचीनाः (चन) अपि (प्रसितयः) उत्तमप्रबन्धाः (तरन्ति) पारयन्ति (तम्) पुरुषम् (यः) (इन्द्रे) ऐश्वर्यवति राजनि निमित्ते (कर्मणा) सत्क्रियया (भुवत्) भवेत् ॥
विषय
'अखर्व'ज्ञान
पदार्थ
१. हे जीवो! (यज्ञियेषु) = यज्ञात्मक कर्मों के होने पर (मन्त्रम् आदधात) = इस प्रभु से दिये गये मन्त्रात्मक ज्ञान को धारण करो, जोकि (अखर्वम्) = खर्व-अल्प नहीं है, (सुधितम्) = जो 'अग्नि, वायु, आदित्य व अंगिरा' ऋषियों के हृदयों में सम्यक् स्थापित किया जाता है तथा सुपेशसं-जो हमारे जीवनों का उत्तम निर्माण करनेवाला है। इस ज्ञान के अनुसार कर्म करने पर जीवन बड़ा सुन्दर बनता है। २. (यः) = जो (कर्मणा) = कर्मों के द्वारा (इन्द्रे भवत्) = सदा प्रभु में वास करता है, (तम्) = उसकी (पूर्वी प्रसितयः) = पालन व पुरण करनेवाले व्रतों के बन्धन (चन) = निश्चय से (तरन्ति) = इस भवसागर से तरानेवाले होते हैं। प्रभु-स्मरणपूर्वक कर्मों को करनेवाला अपने को सदा व्रतों के बन्धन में बाँधकर चलता है। ये व्रतबन्धन उसे इस भवसागर में विषयों की चट्टानों से टकराकर नष्ट नहीं होने देते।
भावार्थ
वेदज्ञान के अनुसार कर्म करने पर जीवन का बड़ा सुन्दर निर्माण होता है। प्रभु स्मरणपूर्वक कर्म करने पर हमारा जीवन व्रतमय बना रहता है और हम संसार के विषयों में फैसते नहीं। प्रभ में निवास करनेवाला अथवा सोम का रक्षण करता हुआ यह 'सुतकक्ष बनता है सुत को ही-सोम को ही यह अपनी शरण बनाता है। अगले मन्त्रों में ये 'सकक्ष सुतकक्ष' ही ऋषि हैं। ४ से ६ तक ऋषि मधुच्छन्दा है-उत्तम मधुर इच्छाओंवाला -
भाषार्थ
हे योगिजनो! तुम—(अखर्वम्) निरभिमानता का उपदेश देनेवाले, (सुधितम्) पूर्णतया हित करनेवाले, (सुपेशसम्) और स्वरों तथा वर्णों से सुकोमल (मन्त्रम्) मन्त्रों की दीक्षा (आ दधात) उन्हें दिया करो, जो कि (यज्ञियेषु) उपासना-यज्ञों के अधिकारी हैं। (ये) जो मन्त्रधारी (कर्मणा) मन्त्रानुसारी कर्मों द्वारा (इन्द्रे) परमेश्वर में (भुवत्) स्थितिलाभ कर लेता है, (तम्) उसे (पूर्वीः चन) अनादि परम्परा द्वारा प्राप्त (प्रसितयः) अविद्या राग-द्वेष आदि के बन्धन (तरन्ति) तैरा देते हैं। अर्थात् वह अविद्या आदि बन्धनों को काटकर, भवसागर से तैर जाता है। [अखवर्म्=अ+खर्व (दर्पे)। पेशः=कोमल।]
विषय
ईश्वरार्चना।
भावार्थ
हे विद्वान् पुरुषो ! आप लोग (यज्ञियेषु) यज्ञ, परस्पर संगति से होने वाले राज्यव्यवस्था, सभा, समिति, सत्संगों में अथवा यज्ञ प्रजापति राजा के हितकारी कार्यों में और यज्ञ-परमेश्वर की उपासना के अवसरों में (अखर्वं) गर्वरहित, अति विनयपूर्वक (सुधितं) उत्तम रूप से विचारित, (सुपेशसं) सुन्दर, (मन्त्रम्) परस्पर का विचार मन्त्र और वेदमन्त्र को (दधात) धारण करो, प्रयोग करो। सभा आदि में विनय से अपने विचार कहो और धर्म कार्यों में श्रद्धा भक्ति से मन्त्रों का उच्चारण करो। (पूर्वोः चन) पूर्व से ही किये गये (प्रसितयः) उत्तम राज्य प्रबन्ध व्यवस्था या धर्म मर्यादाएं भी (तं तरन्ति) उसको कष्टों से पार करती हैं (यः) जो (कर्मणा) कर्म से (इन्द्रे) इन्द्र ऐश्वर्यवान् राजा और प्रभु के अधीन होकर (भुवत्) रहता है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वसिष्ठ ऋषिः। इन्द्रो देवता। चतुऋचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Indra Devata
Meaning
Offer perfect, well structured and graceful mantric thoughts, adorations and actions to the divinities in yajnic programmes of creativity and development. Then even the oldest bounds of will and passion take the yajaka across the seas who dedicates his actions to the service of Indra.
Translation
O men of wisdom and action, you, in the matter of righteous dealings keep yourself possessed of well-construed, perfect brilliant thought. All the mundane-and material bondages keep them away from him who rests in Almighty God with good acts.
Translation
O men of wisdom and action, you, in the matter of righteous dealings keep yourself possessed of well-construed, perfect brilliant thought. All the mundane and material bondages keep them away from him who rests in Almighty God with good acts.
Translation
O people, in all sorts of sacrificial acts state-affairs or assemblies or conferences, make use of mutual consultation or Vedic text in a well-thought, beautifully arranged and humbly-put manner. All the traditions and antecedents previously set up, lead him, easily across all difficulties and troubles, who ever remains under the shelter of the mighty Lord or king, with full activity.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
४−(मन्त्रम्) मन्तव्यं विचारम् (अखर्वम्) खर्व गतौ दर्पे च-अच्। अनीचम्। धार्मिकम् (सुधितम्) दधातेः-क्त। सुविहितम्। सुष्ठु व्यवस्थापितम् (सुपेशसम्) पेशो हिरण्यनाम-निघ० १।२। सुपेशांसि शोभनानि सुवर्णादिधनानि यस्मात् तम् (दधात) धत्त (यज्ञियेषु) पूजार्हेषु व्यवहारेषु (आ) समन्तात् (पूर्वीः) प्राचीनाः (चन) अपि (प्रसितयः) उत्तमप्रबन्धाः (तरन्ति) पारयन्ति (तम्) पुरुषम् (यः) (इन्द्रे) ऐश्वर्यवति राजनि निमित्ते (कर्मणा) सत्क्रियया (भुवत्) भवेत् ॥
बंगाली (2)
मन्त्र विषय
৩-৪ রাজপ্রজাকর্তব্যোপদেশঃ
भाषार्थ
[হে মনুষ্যগণ !] (অখর্বম্) অনীচ [ধার্মিক], (সুধিতম্) উৎকৃষ্ট প্রকারে ব্যবস্থাপিত, (সুপেশসম্) বহু সুবর্ণাদি ধন সিঞ্চিতকারী (মন্ত্রম্) মন্ত্রকে [মন্তব্য বিচারকে] (যজ্ঞিয়েষু) পূজনীয় ব্যবহার সমূহে (আ) সকল দিক হতে (দধাৎ) ধারণ করো। (পূর্বীঃ) প্রাচীন (চন) ই (প্রসিতয়ঃ) উত্তম প্রবন্ধ (তম্) সেই মনুষ্যকে (তরন্তি) উদ্ধার করে, (যঃ) যে পুরুষ (ইন্দ্রে) ইন্দ্রের [পরম ঐশ্বর্যযুক্ত রাজার] নিমিত্ত (কর্মণা) ক্রিয়ার সহিত (ভুবৎ) যুক্ত হয় ॥৪॥
भावार्थ
রাজা এবং বিদ্বান্ জন মিলে গূঢ় বিচারপূর্বক সর্বহিতকারী কার্য করতঃ পরস্পরের মধ্যে প্রীতি বৃৃদ্ধি করুক ॥৪॥
भाषार्थ
হে যোগীগণ! তোমরা—(অখর্বম্) নিরভিমানতার উপদেশ প্রদানকারী, (সুধিতম্) পূর্ণরূপে হিতকারী, (সুপেশসম্) এবং স্বর তথা বর্ণ দ্বারা সুকোমল (মন্ত্রম্) মন্ত্রের দীক্ষা (আ দধাত) তাঁদের প্রদান করো, যারা (যজ্ঞিয়েষু) উপাসনা-যজ্ঞের অধিকারী। (যে) যে মন্ত্রধারী (কর্মণা) মন্ত্রানুসারী কর্ম দ্বারা (ইন্দ্রে) পরমেশ্বরের মধ্যে (ভুবৎ) স্থিতিলাভ করে, (তম্) তাঁকে (পূর্বীঃ চন) অনাদি পরম্পরা দ্বারা প্রাপ্ত (প্রসিতয়ঃ) অবিদ্যা রাগ-দ্বেষাদির বন্ধন (তরন্তি) ত্রাণ করে। অর্থাৎ সে অবিদ্যাদি বন্ধন ছিন্ন করে, ভবসাগর থেকে উদ্ধার হয়। [অখবর্ম্=অ+খর্ব (দর্পে)। পেশঃ=কোমল।]
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