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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 59

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 59/ मन्त्र 4
    सूक्त - वसिष्ठः देवता - इन्द्रः छन्दः - प्रगाथः सूक्तम् - सूक्त-५९

    मन्त्र॒मख॑र्वं॒ सुधि॑तं सु॒पेश॑सं॒ दधा॑त य॒ज्ञिये॒ष्वा। पू॒र्वीश्च॒न प्रसि॑तयस्तरन्ति॒ तं य इन्द्रे॒ कर्म॑णा॒ भुव॑त् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    मन्त्र॑म् । अख॑र्वम् । सुऽधि॑तम् । सु॒ऽपेश॑सम् । दधा॑त । य॒ज्ञिये॑षु । आ ॥ पू॒र्वी: । च॒न । प्रऽसि॑तय: । त॒र॒न्ति॒ । तम् । य: । इन्द्रे॑ । कर्म॑णा । भुव॑त् ॥५९.४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    मन्त्रमखर्वं सुधितं सुपेशसं दधात यज्ञियेष्वा। पूर्वीश्चन प्रसितयस्तरन्ति तं य इन्द्रे कर्मणा भुवत् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    मन्त्रम् । अखर्वम् । सुऽधितम् । सुऽपेशसम् । दधात । यज्ञियेषु । आ ॥ पूर्वी: । चन । प्रऽसितय: । तरन्ति । तम् । य: । इन्द्रे । कर्मणा । भुवत् ॥५९.४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 59; मन्त्र » 4

    भावार्थ -
    हे विद्वान् पुरुषो ! आप लोग (यज्ञियेषु) यज्ञ, परस्पर संगति से होने वाले राज्यव्यवस्था, सभा, समिति, सत्संगों में अथवा यज्ञ प्रजापति राजा के हितकारी कार्यों में और यज्ञ-परमेश्वर की उपासना के अवसरों में (अखर्वं) गर्वरहित, अति विनयपूर्वक (सुधितं) उत्तम रूप से विचारित, (सुपेशसं) सुन्दर, (मन्त्रम्) परस्पर का विचार मन्त्र और वेदमन्त्र को (दधात) धारण करो, प्रयोग करो। सभा आदि में विनय से अपने विचार कहो और धर्म कार्यों में श्रद्धा भक्ति से मन्त्रों का उच्चारण करो। (पूर्वोः चन) पूर्व से ही किये गये (प्रसितयः) उत्तम राज्य प्रबन्ध व्यवस्था या धर्म मर्यादाएं भी (तं तरन्ति) उसको कष्टों से पार करती हैं (यः) जो (कर्मणा) कर्म से (इन्द्रे) इन्द्र ऐश्वर्यवान् राजा और प्रभु के अधीन होकर (भुवत्) रहता है।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - वसिष्ठ ऋषिः। इन्द्रो देवता। चतुऋचं सूक्तम्॥

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