अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 62/ मन्त्र 5
इन्द्रा॑य॒ साम॑ गायत॒ विप्रा॑य बृह॒ते बृ॒हत्। ध॑र्म॒कृते॑ विप॒श्चिते॑ पन॒स्यवे॑ ॥
स्वर सहित पद पाठइन्द्रा॑य । साम॑ । गा॒य॒त॒ । विप्रा॑य । बृ॒ह॒ते । बृ॒हत् ॥ ध॒र्म॒ऽकृते॑ । वि॒प॒:ऽचिते॑ । प॒न॒स्यवे॑ ॥६२.५॥
स्वर रहित मन्त्र
इन्द्राय साम गायत विप्राय बृहते बृहत्। धर्मकृते विपश्चिते पनस्यवे ॥
स्वर रहित पद पाठइन्द्राय । साम । गायत । विप्राय । बृहते । बृहत् ॥ धर्मऽकृते । विप:ऽचिते । पनस्यवे ॥६२.५॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 62; मन्त्र » 5
विषय - ईश्वर का स्तवन।
भावार्थ -
हे मनुष्यो ! (विप्राय) मेधावी, जगत् को विशेष बल और विविध पदार्थों से पूर्ण करने वाले, (बृहते) महान् (धर्मकृते) जगत् के धारण करने हारे प्रबन्ध को करने वाले, (विपश्चिते) समस्त ज्ञानों और कर्मों को जानने वाले, (पनस्यवे) स्तुति के योग्य, (इन्द्राय) परमऐश्वर्यवान् एवं ज्ञान दृष्टि से, समाधि द्वारा साक्षात् दर्शनीय परमेश्वर के (बृहत् साम) महत्व सूचक ‘बृहत्’ नामक साम, स्तुतिगान का (गायत) गायन करो।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - नृमेध ऋषिः। इन्दो देवता। उष्णिहः। दशर्चं सूक्तम्॥
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