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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 67

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 67/ मन्त्र 1
    सूक्त - परुच्छेपः देवता - इन्द्रः छन्दः - अत्यष्टिः सूक्तम् - सूक्त-६७

    व॒नोति॒ हि सु॒न्वन्क्षयं॒ परी॑णसः सुन्वा॒नो हि ष्मा॒ यज॒त्यव॒ द्विषो॑ दे॒वाना॒मव॒ द्विषः॑। सु॑न्वा॒न इत्सि॑षासति स॒हस्रा॑ वा॒ज्यवृ॑तः। सु॑न्वा॒नायेन्द्रो॑ ददात्या॒भुवं॑ र॒यिं द॑दात्या॒भुव॑म् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    व॒नोति॑ । हि । सु॒न्वन् । क्षय॑म् । परी॑णस: । सु॒न्वा॒न: । हि । स्म॒ । यज॑ति । अव॑ । द्विष॑: । दे॒वाना॑म् । अव॑ । द्विष॑: । सु॒न्वा॒न: । इत् । सि॒सा॒स॒ति॒ । स॒हस्रा॑ । वा॒जी । अवृ॑त: ॥ सु॒न्वा॒नाय॑ । इन्द्र॑: । द॒दा॒ति॒ । आ॒ऽभुव॑म् । र॒यिम् । द॒दा॒ति॒ । आ॒ऽभुव॑म् ॥६७.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    वनोति हि सुन्वन्क्षयं परीणसः सुन्वानो हि ष्मा यजत्यव द्विषो देवानामव द्विषः। सुन्वान इत्सिषासति सहस्रा वाज्यवृतः। सुन्वानायेन्द्रो ददात्याभुवं रयिं ददात्याभुवम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    वनोति । हि । सुन्वन् । क्षयम् । परीणस: । सुन्वान: । हि । स्म । यजति । अव । द्विष: । देवानाम् । अव । द्विष: । सुन्वान: । इत् । सिसासति । सहस्रा । वाजी । अवृत: ॥ सुन्वानाय । इन्द्र: । ददाति । आऽभुवम् । रयिम् । ददाति । आऽभुवम् ॥६७.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 67; मन्त्र » 1

    भावार्थ -
    हे इन्द्र परमेश्वर ! (सुन्वन्) तेरा सवन या उपासना करता हुआ पुरुष ही (क्षयं) निवास योग्य उत्तम गृह और लोक को (वनोति) प्राप्त करता है। (सुन्वानः हि) तेरी उपासना करने वाला पुरुष ही (परीणसः) चारों तरफ नाक वाले अर्थात् अति सावधान या चारों ओर से लगे हुए (द्विषः) शत्रुनों को (अवयजति) नाश करता है और साथ ही (देवानाम् द्विषः) विद्वान् पुरुषों के शत्रुओं को भी (अव यजति) नीचे गिराता है। (सुन्वानः इत्) उपासना करने वाला पुरुष ही (वाजी) ज्ञानवान होकर (अवृतः) विघ्न बाधाओं से न घिरकर अकेला ही (सहस्रा) हजारों ऐश्वर्यों को (सिषासति) निरन्तर प्राप्त करता है। (इन्द्रः) परमैश्वर्यवान् परमात्मा (सुन्वानाय) उपासक को (आभुवं रयिम्) सब प्रकार के सुखों को उत्पन्न करने वाले ऐश्वर्य को (ददाति) प्रदान करता है और (आभुवम्) पुनः पुनः आने वाले या अन्त तक रहने वाले, अक्षय (रयिम्) बल वीर्य को (ददाति) प्रदान करता है। राजा के पक्ष में—(सुन्वन्) राज्याभिषेक करने वाला प्रजाजन (क्षयं वनोति) निवास योग्य शरण प्राप्त करता है, अपने शत्रु और विद्वानों के शत्रुओं को दबाता है। (अवृतः) स्वयं शत्रुओं से न घिरकर (वाजी) संग्रामशील या अश्वारोही होकर सहस्रों ऐश्वर्यों को प्राप्त करता है। राजा ऐसे अभिषेक करने वाले प्रजाजन को अक्षय, नाना पदार्थों के उत्पादक (रयिम्) ऐश्वर्य का भी प्रदान करता है। ‘सुन्वन्, सुन्वानः’, षुञ् अभिषवे। स्वादिः। अभिषवः स्त्रपनं, पीड़नं स्नानं सुरासंधानं चेति भट्ट जी दीक्षितः। अथवा—(सुन्वन्) दुष्टों को दण्डित करने वाला पुरुष, गृह प्राप्त करता शत्रुओं को दबाता और अकेला ही सहस्रों ऐश्वर्य प्राप्त करता है। (इन्द्रः) परमेश्वर उसको समृद्ध ऐश्वर्य प्रदान करता है।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - २-३ परुच्छेम ऋषिः। ४-७ गृत्समदः। १-३ अत्यष्टयः। ४-७ अगत्यः सप्तर्चं सूक्तम्॥

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