अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 69/ मन्त्र 1
स घा॑ नो॒ योग॒ आ भु॑व॒त्स रा॒ये स पुरं॑ध्याम्। गम॒द्वाजे॑भि॒रा स नः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठस: । घ॒ । न॒: । योगे॑ । आ । भु॒व॒त् । स: । रा॒ये । स: । पुर॑म्ऽध्याम् ॥ गम॑त् । वाजे॑भि: । आ । स: । न॒: ॥६९.१॥
स्वर रहित मन्त्र
स घा नो योग आ भुवत्स राये स पुरंध्याम्। गमद्वाजेभिरा स नः ॥
स्वर रहित पद पाठस: । घ । न: । योगे । आ । भुवत् । स: । राये । स: । पुरम्ऽध्याम् ॥ गमत् । वाजेभि: । आ । स: । न: ॥६९.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 69; मन्त्र » 1
विषय - राजा, सेनापति, परमेश्वर।
भावार्थ -
(सः घ) वह इन्द्र परमेश्वर ही (नः योगे) हमारे अप्राप्त युरुषार्थ के प्राप्त करने में (आभुवत्) सहायक हो। अथवा (सः घ नः) वह ही हमारे (योग) चित्त के एकाग्र कर लेने पर समाधि दशा में (आभुवत्) प्रकट होता है (सः राये) ऐश्वर्यवृद्धि के लिये भी वही (आ भुवत्) समर्थ है। (सः पुरंन्ध्याम्) वह ही बहुत से शास्त्रों को धारण करने वाली बुद्धि में भी प्रकट होता है। (सः) वह (नः) हमें (वाजेभिः) बल, वीर्य एवं ऐश्वर्यों सहित (आगमत्) प्राप्त हो।
राजा के पक्ष में—वह राजा या सेनापति हमें अलब्ध ऐश्वर्य को प्राप्त करने धन प्राप्त करने और देश की रक्षा के कार्य में समर्थ हो और वह संग्रामों द्वारा या अन्नों सहित हमें प्राप्त हो।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - मधुच्छन्दा ऋषिः। इन्द्रो देवता। गायत्र्यः। द्वादशर्चं सूक्तम्॥
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