अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 69/ मन्त्र 5
आ त्वा॑ विशन्त्वा॒शवः॒ सोमा॑स इन्द्र गिर्वणः। शं ते॑ सन्तु॒ प्रचे॑तसे ॥
स्वर सहित पद पाठआ । त्वा॒ । वि॒श॒न्तु॒ । आ॒शव॑: । सोमा॑स: । इ॒न्द्र॒ । गि॒र्व॒ण॒: ॥ शम् । ते॒ । स॒न्तु॒ । प्रऽचे॑तसे ॥६९.५॥
स्वर रहित मन्त्र
आ त्वा विशन्त्वाशवः सोमास इन्द्र गिर्वणः। शं ते सन्तु प्रचेतसे ॥
स्वर रहित पद पाठआ । त्वा । विशन्तु । आशव: । सोमास: । इन्द्र । गिर्वण: ॥ शम् । ते । सन्तु । प्रऽचेतसे ॥६९.५॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 69; मन्त्र » 5
विषय - राजा, सेनापति, परमेश्वर।
भावार्थ -
हे (गिर्वणः) वाणियों द्वारा स्तुति करने योग्य ! हे (इन्द्र) ऐश्वर्यवान् परमेश्वर ! (आशवः) ये समस्त व्यापक पदार्थ और वेगवान् सूर्यदि लोक (सोमासः) और विद्याओं में व्याप्त ज्ञानी पुरुष भी (त्वा आविशन्तु) तुझ को ही प्राप्त हो जाते हैं और (ते) तुझ (प्रचेतसे) प्रकृष्ट उत्कृष्ट ज्ञानवान् के अधीन होकर ही (शं) कल्याणकारी और शक्तिदायक (सन्तु) होते हैं। अथवा—ज्ञानी पुरुष (प्रचेतसे) सर्वोत्कृष्ट ज्ञानी (ते) तुझे प्राप्त करने के लिये ही (शं) शांतिसम्पन्न, शमदमादि युक्त (सन्तु) हों।
राजा और जीव के पक्ष में—हे स्तुतियोग्य ! समस्त (आशवः सोमासः) शीघ्रगामी तीव्र बुद्धिमान् विद्वान्गण (त्वा आविशन्तु) तेरे अधीन रहें। सर्वोत्कृष्ट ज्ञानवान् पुरुष तेरे लिये कल्याणकारी हों।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - मधुच्छन्दा ऋषिः। इन्द्रो देवता। गायत्र्यः। द्वादशर्चं सूक्तम्॥
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