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अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 7/ मन्त्र 3
स न॒ इन्द्रः॑ शि॒वः सखाश्वा॑व॒द्गोम॒द्यव॑मत्। उ॒रुधा॑रेव दोहते ॥
स्वर सहित पद पाठस: । न॒: । इन्द्र॑: । शि॒व: । सखा॑ । अश्व॑ऽवत् । गोऽम॑त् । यव॑ऽमत् । उ॒रुधा॑राऽइव । दो॒ह॒ते॒ ॥७.३॥
स्वर रहित मन्त्र
स न इन्द्रः शिवः सखाश्वावद्गोमद्यवमत्। उरुधारेव दोहते ॥
स्वर रहित पद पाठस: । न: । इन्द्र: । शिव: । सखा । अश्वऽवत् । गोऽमत् । यवऽमत् । उरुधाराऽइव । दोहते ॥७.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 7; मन्त्र » 3
विषय - परमेश्वर और राजा।
भावार्थ -
(यः) जो ज्ञान का आवरण करने हारे वृत्र. अज्ञानान्धकार का नाश करने वाला, (बाह्वोजसा) अज्ञान बाधक वीर्य से, ज्ञानस्वरूप परमेश्वर सूर्य के समान (अहिम्) हृदय या आकाश पर आवरण करने वाले मेघ के समान अज्ञानावरण को (अवधीत्) विनष्ट करता है और (यः) जो (बाह्वोजसा) अपने बाहु, बाधन करने वाले वीर्य से, पराक्रम से (नव नवतिम्) ९९ (पुरः) देहों को भी (बिभेद) तोड़ डालता है, अर्थात् जो ९९ देह-बन्धनों से मुक्त करता है (सः) वह (इन्द्रः) इन्द्र ऐश्वर्यवान् (शिवः) कल्याणकारी, (सखा) परम मित्र, (अश्वावत्) समस्त व्यापक गुणों से युक्त, (गोमत्) सूर्यादि लोकों या ज्ञान से युक्त, (यवमत्) प्रकृति के परमाणुओं को संयोग विभाग करने वाली शक्ति से युक्त परमेश्वर (नः) हमें (उरुधारा इव) बहुतसी दुग्ध धारा बहाने वाली दुधार कामधेनु के समान ही चानन्द रस एवं सुखों को (दोहते) प्रदान करता है।
राजा के पक्ष में—जो राजा आवरणकारी, नगर को घेरने वाले शत्रु का नाशक (अहिम्) चारों तरफ फैले या सर्प के समान कुटिल शत्रु का नाश करता है और जो शत्रु के ९९ दुर्गों को तोड़ चुकता है वह ‘इन्द्र’ कहाने योग्य राजा हमारे लिये कल्याणकारी मित्र, अश्वों, गौओं की सम्पत्ति से समृद्ध अन्नादि योग्य पदार्थों से युक्त होकर कामधेनु के समान हमें सब प्रकार के सुख प्रदान करता है।
इसी प्रकार वह जीवात्मा जो अज्ञान का नाश करता, ९९ पुर अर्थात् ९९ वर्षों या हिता नाम नाड़ियों को पार करके, सुखी सर्वमित्र, कर्मइन्द्रियों, ज्ञानेन्द्रियों से युक्त होकर नाना धारण सामर्थ्यवान् होकर अन्यों को सुख देता है, वह ‘इन्द्र’ है।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - १-३ सुकक्षः। ४ विश्वामित्रः। इन्द्रो देवता। गायत्र्यः। चतुर्ऋचं सूक्तम्।
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