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अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 7/ मन्त्र 1
उद्घेद॒भि श्रु॒ताम॑घं वृष॒भं नर्या॑पसम्। अस्ता॑रमेषि सूर्य ॥
स्वर सहित पद पाठउत् । घ॒ । इत् । अ॒भि । श्रु॒तऽम॑घम् । वृ॒ष॒भम् । नर्य॑ऽअपसम् ॥ अस्ता॑रम् । ए॒षि॒ । सू॒र्य॒ ॥७.१॥
स्वर रहित मन्त्र
उद्घेदभि श्रुतामघं वृषभं नर्यापसम्। अस्तारमेषि सूर्य ॥
स्वर रहित पद पाठउत् । घ । इत् । अभि । श्रुतऽमघम् । वृषभम् । नर्यऽअपसम् ॥ अस्तारम् । एषि । सूर्य ॥७.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 7; मन्त्र » 1
विषय - परमेश्वर और राजा।
भावार्थ -
हे (सूर्य) सूर्य ! सूर्य के समान तेजस्वी ज्ञानवान् योगिन् ! तू (श्रुतामघम्) प्रसिद्ध ऐश्वर्यवान् (वृषभम्) सब सुखों के वर्षक, सब को अपनी व्यवस्था में बांधने वाले, बड़े बैल के समान शक्तिमान् होकर समस्त ब्रह्माण्ड को वहन करने वाले (नर्यापसम्) समस्त मनुष्यों और जीवात्मा के हितकारी कर्म या व्यापार करने वाले (अस्तारम्) सबके प्रेरक उस परमेश्वर को (अभि) लक्ष्य करके तू (उद् एषि घ) निश्चय से उदित होता है।
राजा के पक्ष में—हे (सूर्य) विद्वन् ! ऐश्वर्यवन् ! नरश्रेष्ठ, सर्वहितकारी, तू (अस्तारम्) शत्रु पर शस्त्रास्त्र फेंकने में शूरवीर पुरुष को प्राप्त होकर उदय को प्राप्त हो ! शिष्यपक्ष में—हे शिष्य सूर्य के व्रत को अनुसरण करने हारे ! तू श्रुत, वेदस्वरूप ज्ञान के धनी, ज्ञानवर्धक, हितकारी, ज्ञानसम्पन्न, ज्ञानान्धकार के नाशक आचार्य को प्राप्त होकर उन्नति को प्राप्त हो।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - १-३ सुकक्षः। ४ विश्वामित्रः। इन्द्रो देवता। गायत्र्यः। चतुर्ऋचं सूक्तम्।
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