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अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 78/ मन्त्र 3
कु॒वित्स॑स्य॒ प्र हि व्र॒जं गोम॑न्तं दस्यु॒हा गम॑त्। शची॑भि॒रप॑ नो वरत् ॥
स्वर सहित पद पाठकु॒वित्ऽस॑स्य । प्र । हि । व्र॒जम् । गोऽम॑न्तम् । द॒स्यु॒ऽहा । गम॑त् ॥ शची॑भि: । अप॑: । न॒ । व॒र॒त् ॥७८.३॥
स्वर रहित मन्त्र
कुवित्सस्य प्र हि व्रजं गोमन्तं दस्युहा गमत्। शचीभिरप नो वरत् ॥
स्वर रहित पद पाठकुवित्ऽसस्य । प्र । हि । व्रजम् । गोऽमन्तम् । दस्युऽहा । गमत् ॥ शचीभि: । अप: । न । वरत् ॥७८.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 78; मन्त्र » 3
विषय - राजा और परमेश्वर।
भावार्थ -
(दस्युहा) दस्यु अर्थात् नाशकारी लोगों को विनाशक, राजा के समान दुष्टों का विनाशक परमेश्वर (कुवित्सस्य) बहुत से भोग्य पदार्थ के भोक्ता जीव को (गोमन्तम्) गौओं से युक्त व्रज के समान नाना सुखप्रद इन्द्रियों या किरणों ज्ञानवाणियों से युक्त (व्रजम्) प्राप्य परमपद, को (प्र अगमत्) प्राप्त कराता है। वह ही (नः) हमें (शचीभिः) अपनी ज्ञान शक्तियों से उस परमपद के द्वार को (अप वरतः) खोल दे।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - शंयुर्त्रषिः। इन्द्रो देवता। गायत्र्यः। तृचं सूक्तम्॥
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