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अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 83/ मन्त्र 1
इन्द्र॑ त्रि॒धातु॑ शर॒णं त्रि॒वरू॑थं स्वस्ति॒मत्। छ॒र्दिर्य॑च्छ म॒घव॑द्भ्यश्च॒ मह्यं॑ च या॒वया॑ दि॒द्युमे॑भ्यः ॥
स्वर सहित पद पाठइन्द्र॑ । त्रि॒ऽधातु॑ । श॒र॒णम् । त्रि॒ऽवरू॑थम् । स्व॒स्ति॒ऽमत् ॥ छ॒र्दि: । य॒च्छ॒ । म॒घव॑त्ऽभ्य: । च॒ । मह्य॑म् । च॒ । य॒वय॑ । दि॒द्युम् । ए॒भ्य॒: ॥८३.१॥
स्वर रहित मन्त्र
इन्द्र त्रिधातु शरणं त्रिवरूथं स्वस्तिमत्। छर्दिर्यच्छ मघवद्भ्यश्च मह्यं च यावया दिद्युमेभ्यः ॥
स्वर रहित पद पाठइन्द्र । त्रिऽधातु । शरणम् । त्रिऽवरूथम् । स्वस्तिऽमत् ॥ छर्दि: । यच्छ । मघवत्ऽभ्य: । च । मह्यम् । च । यवय । दिद्युम् । एभ्य: ॥८३.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 83; मन्त्र » 1
विषय - राजा।
भावार्थ -
हे (इन्द्र) ऐश्वर्यवन् ! तू (त्रिधातु) तीन धातु, धारण सामर्थ्यों से युक्त (त्रिवरूथम्) तीनों प्रकार के कष्टों को वारण करने वाला, (स्वस्तिमत्) कल्याणवान् (छर्दिः) छत या सुखों से युक्त (शरणम्) आश्रयस्थान, गृह (मंघवद्भ्यः) धनाढ्य पुरुषों और (मह्यम्) मुझको भी (यच्छे) प्रदान कर और (एभ्यः) इनसे (दिद्युम्) देदीप्यमान शस्त्र या क्रोध आदि को (यवय) दूर कर। अथवा (एभ्यः) इनके (दिद्युम्) प्रदीप्त क्रोध या अस्त्र को हमसे (यवय) दूर कर।
‘त्रिधातु’—तीन धातु अर्थात् तीन प्रकार से धारण करने वाला, तिमंजिला, अथवा सुवर्ण, रजत, लोह, इनसे युक्त। अध्यात्म में—त्रिधातु वात, पित्त, कफ अथवा शरीर के तीन धारक बल प्राण, उदान, अपान।
‘त्रिवरूथम्’ तीन तापों को चारण करने में समर्थ, शीत, आतप, वर्षा, तीन कष्ट, अथवा, मानस, वाचिक, कायिक, तीनों पीड़ाओं का वारक अथवा अध्यात्मिक, आधिभौतिक और आधिदैविक तीनों का वारक यह देह।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - शंयु ऋषिः। इन्द्रो देवता। १ बृहती, २ पंक्तिः। द्वयृचं सूक्तम्॥
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