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अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 83/ मन्त्र 2
ये ग॑व्य॒ता मन॑सा॒ शत्रु॑माद॒भुर॑भिप्र॒घ्नन्ति॑ धृष्णु॒या। अध॑ स्मा नो मघवन्निन्द्र गिर्वणस्तनू॒पा अन्त॑मो भव ॥
स्वर सहित पद पाठये । ग॒व्य॒ता । मन॑सा । शत्रु॑म् । आ॒ऽद॒भु: । अ॒भि॒ऽप्र॒घ्नन्ति॑ । धृ॒ष्णु॒ऽया ॥ अघ॑ । स्म॒ । न॒: । म॒घ॒ऽव॒न् । इ॒न्द्र॒ । गि॒र्व॒ण॒: । त॒नू॒ऽपा: । अन्त॑म: । भ॒व॒ ॥८३.२॥
स्वर रहित मन्त्र
ये गव्यता मनसा शत्रुमादभुरभिप्रघ्नन्ति धृष्णुया। अध स्मा नो मघवन्निन्द्र गिर्वणस्तनूपा अन्तमो भव ॥
स्वर रहित पद पाठये । गव्यता । मनसा । शत्रुम् । आऽदभु: । अभिऽप्रघ्नन्ति । धृष्णुऽया ॥ अघ । स्म । न: । मघऽवन् । इन्द्र । गिर्वण: । तनूऽपा: । अन्तम: । भव ॥८३.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 83; मन्त्र » 2
विषय - राजा।
भावार्थ -
हे (इन्द्र) राजन् ! (ये) जो पुरुष (गव्यता मनसा) भूमि और गौ आदि पशु लेने की इच्छा वाले मन से (शत्रुम्) शत्रु को (आदमुः) मारने में समर्थ हैं और जो (धृष्णुया) शत्रु को घर्षण करने वाली शक्ति से (अभि प्र घ्नन्ति) मार डालते हैं ऐसे पुरुषों के होते हुए हे (मघवन्) ऐश्वर्यवन् ! हे (गिर्वणः) स्तुत्य ! (इन्द्र) हे शत्रुनाशक ! तू (तनूपाः) हमारे शरीरों का रक्षक होकर (नः अन्तमः) हमारा अति समीपतम मित्र एवं रक्षक होकर (भव) रह।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - शंयु ऋषिः। इन्द्रो देवता। १ बृहती, २ पंक्तिः। द्वयृचं सूक्तम्॥
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