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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 87

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 87/ मन्त्र 3
    सूक्त - वसिष्ठः देवता - इन्द्रः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - सूक्त-८७

    ज॑ज्ञा॒नः सोमं॒ सह॑से पपाथ॒ प्र ते॑ मा॒ता म॑हि॒मान॑मुवाच। एन्द्र॑ पप्राथो॒र्वन्तरि॑क्षं यु॒धा दे॒वेभ्यो॒ वरि॑वश्चकर्थ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ज॒ज्ञा॒न: । सोम॑म् । सह॑से । प॒पा॒थ॒ । प्र । ते॒ । मा॒ता । म॒हि॒मान॑म् । उ॒वा॒च॒ ॥ आ । इ॒न्द्र॒ । प॒प्रा॒थ॒ । उ॒रु । अ॒न्तरि॑क्षम् । यु॒धा । दे॒वेभ्य॑: । वरि॑व: । च॒क॒र्थ॒ ॥८७.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    जज्ञानः सोमं सहसे पपाथ प्र ते माता महिमानमुवाच। एन्द्र पप्राथोर्वन्तरिक्षं युधा देवेभ्यो वरिवश्चकर्थ ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    जज्ञान: । सोमम् । सहसे । पपाथ । प्र । ते । माता । महिमानम् । उवाच ॥ आ । इन्द्र । पप्राथ । उरु । अन्तरिक्षम् । युधा । देवेभ्य: । वरिव: । चकर्थ ॥८७.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 87; मन्त्र » 3

    भावार्थ -
    राजा के पक्ष में—हे (इन्द्र) राजन् ! तू (जज्ञानः) उत्पन्न होते, राजा बनते ही (सहसे) अपने शत्रुपराजयकारी बल से (सोमं) राजपद एवं राष्ट्र का (पपाथ) उपभोग करता एवं पालन करता है। (ते माता) तेरी माता, तुझे राजा बनाने वाली राजसभा एवं यह पृथ्वी (ते महिमानम्) तेरे महान् सामर्थ्य को (प्र उवाच) कहती है। तू (उरु अन्तरिक्षं) विशाल अन्तरिक्ष को (आ पप्राथ) पूर्ण करता अर्थात् अन्तरिक्ष के समान प्रजाओं का रक्षक और उनपर जलादि वर्षण के समान सुखों का वर्षण करके स्वयं मानो अन्तरिक्ष पद को (आ पप्राथ) प्राप्त करता है। और (युधा) युद्ध द्वारा (देवेभ्यः) विजिगीषु सेना पुरुषों और विद्वानों के लिये (वरिवः) धनैश्वर्यवान् को भी (चकर्थ) उत्पन्न करता है। अध्यात्म के पक्ष में—(जज्ञानः सोमं सहसे पपाथ) ज्ञान सम्पादन करता हुआ अपने आत्मिक बल से योगी सोम रस, ब्रह्मरस का पान करता है। हे आत्मन् ! (माता) ज्ञानी पुरुष (ते महिमानम् प्र उवाच) तेरी बड़े महान् सामर्थ्य का वर्णन करता है। (उरु अन्तरिक्षम्) विशाल हृदयाकाश को तू (पप्राथ) पूर्ण करता, (देवेभ्यः वरिवः चकर्थ) और प्राणों को भी बल प्रदान करता है। परमेश्वरपक्ष में—शक्तिरूप से प्रादुर्भूत होकर या सृष्टि को उत्पन्न करता हुआ तू अपने बल से (सोमं) इस उत्पन्न संसार को स्वयं (पपाथ) पान करता है, प्रलयकाल में लील जाता है (माता) जननी अखण्ड प्रकृति तेरे इस महान् सामर्थ्य का वर्णन करती है। तू (उरु अन्तरिक्षं) इस विशाल आकाश को विस्तृत करता है (देवेभ्यः) सूर्यादि लोकों को (युधाः) अपने बल से (वरिवः) तू ही तेज (चकर्थ) देता है।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - वसिष्ठ ऋषिः। इन्द्रो देवता। त्रिष्टुभः। सप्तर्चं सूक्तम्॥

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