अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 87/ मन्त्र 5
प्रेन्द्र॑स्य वोचं प्रथ॒मा कृ॒तानि॒ प्र नूत॑ना म॒घवा॒ या च॒कार॑। य॒देददे॑वी॒रस॑हिष्ट मा॒या अथा॑भव॒त्केव॑लः॒ सोमो॑ अस्य ॥
स्वर सहित पद पाठप्र । इन्द्र॑स्य । वो॒च॒म् । प्र॒थ॒मा । कृ॒तानि॑ । प्र । नूत॑ना । म॒घऽवा॑ । या । च॒कार॑ ॥ य॒दा । इत् । अदे॑वी: । अस॑हिष्ट । मा॒या: । अथ॑ । अ॒भ॒व॒त् । केव॑ल: । सोम॑: । अ॒स्य॒ ॥८७.५॥
स्वर रहित मन्त्र
प्रेन्द्रस्य वोचं प्रथमा कृतानि प्र नूतना मघवा या चकार। यदेददेवीरसहिष्ट माया अथाभवत्केवलः सोमो अस्य ॥
स्वर रहित पद पाठप्र । इन्द्रस्य । वोचम् । प्रथमा । कृतानि । प्र । नूतना । मघऽवा । या । चकार ॥ यदा । इत् । अदेवी: । असहिष्ट । माया: । अथ । अभवत् । केवल: । सोम: । अस्य ॥८७.५॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 87; मन्त्र » 5
विषय - राजा, आत्मा।
भावार्थ -
(इन्द्रस्य) वीर राजा या सेनापति के मैं (प्रथमा कृतानि) पहले किये हुए श्रेष्ठ उत्तम कार्यों को (प्रवोचं) वर्णन करूं। (या) और जिन (नूतना) नवीन कर्मों को (मघवा) वह ऐश्वर्यवान् करता है उन को भी मैं (प्रवोचम्) कहूं। (यद्) जब वह (अदेवीः) अविजिगीषु, अयोद्धा, भीरू लोगों की (मायाः) छलकपट की क्रियाओं को (असहिष्ट) विजय कर लेता है तब (सोमः) उत्तम ऐश्वर्य को देने वाला राष्ट्र (केवलः) समस्त (अस्य) उसके ही वश में (अभवत्) रहता है।
परमेश्वर के पक्ष में—परमेश्वर के पूर्व कल्पों में किये और नवीन इस कल्प में किये जगत्सर्गो के विषय में मैं वर्णन करूं। (यद्) जब वह (अदेवीः) अग्नि आदि दिव्य पदार्थों से अतिरिक्त असत् पदार्थों के द्वारा उत्पन्न (मायाः) भ्रम पूर्ण रचनाओं को अथवा (देवीः) प्रकाश रहित (मायाः) प्रकृति के विकृति सृष्टियों को भी (असहिष्ट) अपने वश किये रहता है तब जानों कि (सोमः केवलः) समस्त जगत् ही (अस्य) उसके वशमें (अभवत्) है।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - वसिष्ठ ऋषिः। इन्द्रो देवता। त्रिष्टुभः। सप्तर्चं सूक्तम्॥
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