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अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 90/ मन्त्र 1
यो अ॑द्रि॒भित्प्र॑थम॒जा ऋ॒तावा॒ बृह॒स्पति॑राङ्गिर॒सो ह॒विष्मा॑न्। द्वि॒बर्ह॑ज्मा प्राघर्म॒सत्पि॒ता न॒ आ रोद॑सी वृष॒भो रो॑रवीति ॥
स्वर सहित पद पाठय: । अ॒द्रि॒ऽभित् । प्र॒थ॒म॒ऽजा: । ऋ॒तऽवा॑ । बृह॒स्पति: । आ॒ङ्गि॒र॒स: । ह॒विष्मा॑न् ॥ द्वि॒बर्ह॑ऽज्मा । प्रा॒घ॒र्म॒ऽसत् । पि॒ता । न॒: । आ । रोद॑सी॒ इति॑ । वृ॒ष॒भ: । रो॒र॒वी॒ति॒ ॥९०.१॥
स्वर रहित मन्त्र
यो अद्रिभित्प्रथमजा ऋतावा बृहस्पतिराङ्गिरसो हविष्मान्। द्विबर्हज्मा प्राघर्मसत्पिता न आ रोदसी वृषभो रोरवीति ॥
स्वर रहित पद पाठय: । अद्रिऽभित् । प्रथमऽजा: । ऋतऽवा । बृहस्पति: । आङ्गिरस: । हविष्मान् ॥ द्विबर्हऽज्मा । प्राघर्मऽसत् । पिता । न: । आ । रोदसी इति । वृषभ: । रोरवीति ॥९०.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 90; मन्त्र » 1
विषय - राष्ट्रपालक, ईश्वर और विद्वान्।
भावार्थ -
(यः) जो (बृहस्पतिः) बृहती वेदवाणी और द्यौ और ब्रह्माण्ड का पालक (अद्रिभित्) मेघों के आवरण के दूर करने वाले वायु के समान अद्रि, नदीर्ण होने वाले, दुर्भेद्य, जन्ममरण के बन्धन या अज्ञान का नाशक (ऋतावा) जल से पूर्ण (आङ्गिरसः) अंग अंग में व्यापक प्राण के समान जगत् के समस्त देदीप्यमान लोकों में रस या परमबल रूप से विद्यमान (हविष्मान्) शक्तिशाली (द्विबर्हज्मा) आकाश के समान दोनों लोक पृथिवी और आकाश में शत्रु और मित्र दोनों में व्यापक अथवा ज्ञान कर्म दोनों में प्रविष्ट सूर्य के समान (प्राधर्मसत्) सर्वोत्कृष्ट तेजः स्वरूप में विद्यमान (पिता) सबके पालक मेघ के समान (वृषभः) समस्त सुखों का वर्षक (नः) हमें (रोदसी) सर्वत्र विश्व में (आरोरवीति) गर्जन करता और ज्ञान का उपदेश करता है।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - भरद्वाज ऋषिः। बृहस्पतिर्देवता। त्रिष्टुभः। तृचं सूक्तम्॥
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