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अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 90/ मन्त्र 2
जना॑य चि॒द्य ईव॑ते उ लो॒कं बृह॒स्पति॑र्दे॒वहू॑तौ च॒कार॑। घ्नन्वृ॒त्राणि॒ वि पुरो॑ दर्दरीति॒ जयं॒ छत्रूं॑र॒मित्रा॑न्पृ॒त्सु साह॑न् ॥
स्वर सहित पद पाठजना॑य । चि॒त् । व: । ईव॑ते । ऊं॒ इति॑ । लो॒कम् । बृह॒स्पति॑: । दे॒वऽहू॑तौ । च॒कार॑ ॥ घ्नन् । वृ॒त्राणि॑ । वि । पुर॑: । द॒र्द॒री॒ति॒ । जय॑न् । शत्रू॑न् । अ॒मित्रा॑न् । पृ॒त्सु । सह॑न् ॥९०.२॥
स्वर रहित मन्त्र
जनाय चिद्य ईवते उ लोकं बृहस्पतिर्देवहूतौ चकार। घ्नन्वृत्राणि वि पुरो दर्दरीति जयं छत्रूंरमित्रान्पृत्सु साहन् ॥
स्वर रहित पद पाठजनाय । चित् । व: । ईवते । ऊं इति । लोकम् । बृहस्पति: । देवऽहूतौ । चकार ॥ घ्नन् । वृत्राणि । वि । पुर: । दर्दरीति । जयन् । शत्रून् । अमित्रान् । पृत्सु । सहन् ॥९०.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 90; मन्त्र » 2
विषय - राष्ट्रपालक, ईश्वर और विद्वान्।
भावार्थ -
(यः) जो (बृहस्पतिः) बड़े भारी राष्ट्र का पालक या जगत् का पालक, राजा या परमेश्वर या वाणी का पालक विद्वान् (ईवते) आने वाले (जनाय) मनुष्यों के लिये (देवहूतौ) यज्ञ में देवों की आहुति स्थान या प्राणायतन देह में (लोकं चकार) उत्पन्न हुए जीवों का निवासस्थान बनाता है। और (यः) जो (वृत्राणि) आवरणकारी, मोहजन्य अज्ञानों को (घ्नन्) नाश करता हुआ (पुरः) संवत्सर रूप पुरियों को या देहबन्धनों को (वि दर्दरीति) विविध उपायों से वीर सेनापति के समान तोड़ता है। वह (शत्रून्) शत्रुओं को (जयन्) विजय करता हुआ और (अमित्रान्) मित्रों से विपरीत शत्रुपक्ष के अन्य सहायकों को भी (पृत्सु) संग्रामों में (साहन्) पराजित करे।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - भरद्वाज ऋषिः। बृहस्पतिर्देवता। त्रिष्टुभः। तृचं सूक्तम्॥
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