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अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 90/ मन्त्र 3
बृह॒स्पतिः॒ सम॑जय॒द्वसू॑नि म॒हो व्र॒जान्गोम॑तो दे॒व ए॒षः। अ॒पः सिषा॑स॒न्त्स्वरप्र॑तीतो॒ बृह॒स्पति॒र्हन्त्य॒मित्र॑म॒र्कैः ॥
स्वर सहित पद पाठबृह॒स्पति॑: । सम् । अ॒ज॒य॒त् । वसू॑नि । म॒ह: । व्र॒जान् । गोऽम॑त: । दे॒व: । ए॒ष: ॥ अ॒प: । सिसा॑सन् । स्व॑: । अप्र॑तिऽइत: । बृह॒स्पति॑: । हन्ति॑ । अ॒मित्र॑म् । अ॒र्कै: ॥९०.३॥
स्वर रहित मन्त्र
बृहस्पतिः समजयद्वसूनि महो व्रजान्गोमतो देव एषः। अपः सिषासन्त्स्वरप्रतीतो बृहस्पतिर्हन्त्यमित्रमर्कैः ॥
स्वर रहित पद पाठबृहस्पति: । सम् । अजयत् । वसूनि । मह: । व्रजान् । गोऽमत: । देव: । एष: ॥ अप: । सिसासन् । स्व: । अप्रतिऽइत: । बृहस्पति: । हन्ति । अमित्रम् । अर्कै: ॥९०.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 90; मन्त्र » 3
विषय - राष्ट्रपालक, ईश्वर और विद्वान्।
भावार्थ -
(बृहस्पतिः) बड़े भारी राष्ट्र का पालक राजा (वसूनि) ऐश्वर्यों को (सम् अजयत्) विजय करता है। और (गोमतः) गौ आदि पशुओं से सम्पन्न (महः व्रजान्) बड़े भारी समूहों को (एषः देवः) वह विजयी (सम् अजयत्) विजय करता है। वह स्वयं (अप्रतीतः) किसी से भी विरोध द्वारा रोका न जाकर (स्वः) सुखमय (अपः) समस्त राष्ट्र के कार्यों को (सिषासन्) विभक्त करने की इच्छा करता हुआ (अमित्रम्) प्रजा के शत्रु को (अर्कैः) अपने शासनों से (हन्ति) विनष्ट करता है।
अध्यात्म में—(एषः देवः) विजयी, योगी, बड़ी शक्ति का पालक होकर बहुत से ऐश्वर्यों और इन्द्रियों से युक्त देहों पर वश करता है। (स्वः अपः) सुखोत्पादक मोक्षमयी बुद्धियों का सेवन करता हुआ (अप्रतीतः) बे रोक टोक होकर (अर्कैः) ज्ञान-किरणों से या स्तुतियों द्वारा (अमित्रम्) विरोधी द्वेष भाव या अज्ञान को नाश करता है।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - भरद्वाज ऋषिः। बृहस्पतिर्देवता। त्रिष्टुभः। तृचं सूक्तम्॥
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