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अथर्ववेद > काण्ड 3 > सूक्त 25

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  • अथर्ववेद - काण्ड 3/ सूक्त 25/ मन्त्र 2
    सूक्त - भृगुः देवता - मित्रावरुणौ, कामबाणः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - कामबाण सूक्त

    आ॒धीप॑र्णां॒ काम॑शल्या॒मिषुं॑ संक॒ल्पकु॑ल्मलाम्। तां सुसं॑नतां कृ॒त्वा कामो॑ विध्यतु त्वा हृ॒दि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ॒धीऽप॑र्णाम् । काम॑ऽशल्याम् । इषु॑म् । सं॒क॒ल्पऽकु॑ल्मलाम् । ताम् । सुऽसं॑नताम् । कृ॒त्वा । काम॑: । वि॒ध्य॒तु॒ । त्वा॒ । हृ॒दि ॥२५.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आधीपर्णां कामशल्यामिषुं संकल्पकुल्मलाम्। तां सुसंनतां कृत्वा कामो विध्यतु त्वा हृदि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आधीऽपर्णाम् । कामऽशल्याम् । इषुम् । संकल्पऽकुल्मलाम् । ताम् । सुऽसंनताम् । कृत्वा । काम: । विध्यतु । त्वा । हृदि ॥२५.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 3; सूक्त » 25; मन्त्र » 2

    भावार्थ -
    काम बाण से होने वाली पीड़ा का वर्णन करते हैं। इस दशा में स्त्री-पुरुष की मानसिक दशा को अलंकार से दर्शाते हैं। हे मेरे प्रियतम ! और हे मेरी प्रियतमे ! (कामः) कामदेव (तां इषुम्) उस कामना रूप बाण को (आधीपर्णां) व्यथा रूप पखों से सजाकर, (कामशल्याम्) काम = परस्पर अभिलाषा या दृढ़ रूप से एक दूसरे के प्रति चाह का शल्य=फला लगा कर, उनको (संकल्पकुल्मलाम्) नाना संकल्प विकल्पों की लेस से चिपका कर और (तां सुसन्नतां कृत्वा) उसको खूब उत्तम रीति से झुकाकर (कामः) स्मर देव (त्वा हृदि) तुझे हृदय में (विध्यत्) ताड़े ता कि तू मुझे ही एकमात्र चाहे ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - जयकामो भृगुऋषिः। मैत्रावरुणौ कामेषुश्च देवता। १-६ अनुष्टुभः। षडृर्चं सूक्तम्॥

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