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अथर्ववेद > काण्ड 3 > सूक्त 25

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  • अथर्ववेद - काण्ड 3/ सूक्त 25/ मन्त्र 4
    सूक्त - भृगुः देवता - मित्रावरुणौ, कामबाणः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - कामबाण सूक्त

    शु॒चा वि॒द्धा व्यो॑षया॒ शुष्का॑स्या॒भि स॑र्प मा। मृ॒दुर्निम॑न्युः॒ केव॑ली प्रियवा॒दिन्यनु॑व्रता ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    शु॒चा । वि॒ध्दा । विऽओ॑षया । शुष्क॑ऽआस्या । अ॒भि । स॒र्प॒ । मा॒ । मृ॒दु: । निऽम॑न्यु: । केव॑ली । प्रि॒य॒ऽवा॒दिनी॑ । अनु॑ऽव्रता॥२५.४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    शुचा विद्धा व्योषया शुष्कास्याभि सर्प मा। मृदुर्निमन्युः केवली प्रियवादिन्यनुव्रता ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    शुचा । विध्दा । विऽओषया । शुष्कऽआस्या । अभि । सर्प । मा । मृदु: । निऽमन्यु: । केवली । प्रियऽवादिनी । अनुऽव्रता॥२५.४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 3; सूक्त » 25; मन्त्र » 4

    भावार्थ -
    इस प्रकार परस्पर प्रेम भाव बंध जाने पर, प्रथम वर, पतिंवरा कन्या के प्रति यह भाव प्रकट करे कि हे प्रियतमे ! तू (व्योषया) नाना प्रकार से या विशेष रूप से दहन करने या तपाने वाले (शुचा) शोक से (विद्धा) संतापित, पीड़ित होकर (शुष्क-आस्या) विरह वेदना में अन्न और जल छोड़ देने के कारण मुरझाए मुंह वाली होकर (केवली) एकमात्र तू ही (प्रिय वादिनी) प्रिय वचनों को बोलती हुई सुमधुर-भाषिणी और (अनुव्रता) मेरे मनोनुकूल सब गृह कार्य और गृहस्थव्रतों का पालन करती हुई (मृदुः) अति कोमल शरीर वाली, मृद्वंगी, शिरीष-कुमुम-कोमलाङ्गी (नि-मन्युः) हार्दिक क्रोध को परित्याग करके (मा अभि सर्प) मेरे समक्ष, मुझे वरने के लिये सभा में उपस्थित हो।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - जयकामो भृगुऋषिः। मैत्रावरुणौ कामेषुश्च देवता। १-६ अनुष्टुभः। षडृर्चं सूक्तम्॥

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