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अथर्ववेद > काण्ड 3 > सूक्त 28

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  • अथर्ववेद - काण्ड 3/ सूक्त 28/ मन्त्र 2
    सूक्त - ब्रह्मा देवता - यमिनी छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - पशुपोषण सूक्त

    ए॒षा प॒शून्त्सं क्षि॑णाति क्र॒व्याद्भू॒त्वा व्यद्व॑री। उ॒तैनां॑ ब्र॒ह्मणे॑ दद्या॒त्तथा॑ स्यो॒ना शि॒वा स्या॑त् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ए॒षा । प॒शून् । सम् । क्षि॒णा॒ति॒ । क्र॒व्य॒ऽअत् । भू॒त्वा । वि॒ऽअद्व॑री । उ॒त । ए॒ना॒म् । ब्र॒ह्मणे॑ । द॒द्या॒त् । तथा॑ । स्यो॒ना । शि॒वा । स्या॒त् ॥२८.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    एषा पशून्त्सं क्षिणाति क्रव्याद्भूत्वा व्यद्वरी। उतैनां ब्रह्मणे दद्यात्तथा स्योना शिवा स्यात् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    एषा । पशून् । सम् । क्षिणाति । क्रव्यऽअत् । भूत्वा । विऽअद्वरी । उत । एनाम् । ब्रह्मणे । दद्यात् । तथा । स्योना । शिवा । स्यात् ॥२८.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 3; सूक्त » 28; मन्त्र » 2

    भावार्थ -
    (एषा) वह अव्यवस्थापिका सभा, विपरीत जाने हारी शासन समिति (व्यद्वरी) एक दूसरे को खा जाने वाली होने के कारण (क्रव्याद्) एक दूसरे के शरीर के मांस की लोलुपा (भूत्वा) होकर (पशून्) पशुओं का, मूर्ख अनभिज्ञ साधारण प्रजाजनों का (समू क्षिणोति) खूब परस्पर नाश कराती है । तब क्या उपाय करे (उत) तो फिर (एनां) इस दुर्व्यवस्था की बागडोर (ब्रह्मणे दद्यात्) ब्रह्म = वेद के जानने हारे परम विद्वान् पुरुष, जज्ज, व्यवस्थापक के हाथ में देवे (तथा) तभी वह (स्योना) सुखकारिणी और (शिवा) मंगलजनक (स्यात्) हो जाती है। अथवा—वह तामसी और राजसी प्रकृति एक दूसरे की विनाशिका होने से मनुष्य के शरीर की विनाशक हो जाती है और जीवों को नष्ट करती है इसलिये जीवों को चाहिये कि उस प्रकृति को ब्रह्म-अर्थात् सत्व के अधीन कर दे, जिससे वह भी सुख और कल्याणकारी हो जाय । अथवा – यदि वह नारी केवल (व्यद्वरी) भोगप्रिया होकर (क्व्याद्) कच्चे जीवों की नाशिका होकर और बीजभूत जीवों का विनाश करे तो भी उसको (ब्रह्मणे) विद्वान् वैद्य के पास ले जाय जिससे पुनः गृहस्थ-सुख को देने वाली हो जाय।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - पशुपोषणकामो ब्रह्मा ऋषिः। यमिनी देवता। १ अतिशाक्वरगर्भा चतुष्पदा अति-जगती, ४ यवमध्या विराट्-ककुप, ५ त्रिष्टुप्, ६ विराडगर्भा प्रस्तारपंक्तिः। २,३ अनुष्टुभौ। षडृर्चं सूक्तम्॥

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