अथर्ववेद - काण्ड 3/ सूक्त 28/ मन्त्र 4
सूक्त - ब्रह्मा
देवता - यमिनी
छन्दः - यवमध्या विराट्ककुप्
सूक्तम् - पशुपोषण सूक्त
इ॒ह पुष्टि॑रि॒ह रस॑ इ॒ह स॑हस्र॒सात॑मा भव। प॒शून्य॑मिनि पोषय ॥
स्वर सहित पद पाठइ॒ह । पुष्टि॑: । इ॒ह । रस॑: । इ॒ह । स॒ह॒स्र॒ऽसात॑मा । भ॒व॒ । प॒शून् । य॒मि॒नि॒ । पो॒ष॒य॒ ॥२८.४॥
स्वर रहित मन्त्र
इह पुष्टिरिह रस इह सहस्रसातमा भव। पशून्यमिनि पोषय ॥
स्वर रहित पद पाठइह । पुष्टि: । इह । रस: । इह । सहस्रऽसातमा । भव । पशून् । यमिनि । पोषय ॥२८.४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 3; सूक्त » 28; मन्त्र » 4
विषय - ‘यमिनी’ राजसभा और गृहिणी के कर्तव्यों का उपदेश।
भावार्थ -
हे (यमिनि) विवाहिता नारि ! अथवा हे व्यवस्थापिका-सभे ! (इह) इस गृह और राष्ट्र में (पुष्टिः) पोषदायक पदार्थों से परिपोषण हो, (इह रसः) यहां जल और रसदायक पदार्थों की वृद्धि हो और तू (इह सहस्रसातमा भव) यहां सहस्रों प्रकार के पदार्थों को देने वाली हो, (पशून् पोषय) तू राष्ट्र पशुओं और अनभिज्ञ प्रजाजनों को पुष्ट कर। इसी प्रकार गृहिणी पशुओं को और बालक-जीवों को पुष्ट करे।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - पशुपोषणकामो ब्रह्मा ऋषिः। यमिनी देवता। १ अतिशाक्वरगर्भा चतुष्पदा अति-जगती, ४ यवमध्या विराट्-ककुप, ५ त्रिष्टुप्, ६ विराडगर्भा प्रस्तारपंक्तिः। २,३ अनुष्टुभौ। षडृर्चं सूक्तम्॥
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