अथर्ववेद - काण्ड 3/ सूक्त 5/ मन्त्र 1
सूक्त - अथर्वा
देवता - सोमः, पर्णमणिः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - राजा ओर राजकृत सूक्त
आयम॑गन्पर्णम॒णिर्ब॒ली बले॑न प्रमृ॒णन्त्स॒पत्ना॑न्। ओजो॑ दे॒वानां॒ पय॒ ओष॑धीनां॒ वर्च॑सा मा जिन्व॒त्वप्र॑यावन् ॥
स्वर सहित पद पाठआ । अ॒यम् । अ॒ग॒न् । प॒र्ण॒ऽम॒णि: । ब॒ली । बले॑न । प्र॒ऽमृ॒णन् । स॒ऽपत्ना॑न् । ओज॑: । दे॒वाना॑म् । पय॑: । ओष॑धीनाम् । वर्च॑सा । मा॒ । जि॒न्व॒तु॒ । अप्र॑ऽयावन् ॥५.१॥
स्वर रहित मन्त्र
आयमगन्पर्णमणिर्बली बलेन प्रमृणन्त्सपत्नान्। ओजो देवानां पय ओषधीनां वर्चसा मा जिन्वत्वप्रयावन् ॥
स्वर रहित पद पाठआ । अयम् । अगन् । पर्णऽमणि: । बली । बलेन । प्रऽमृणन् । सऽपत्नान् । ओज: । देवानाम् । पय: । ओषधीनाम् । वर्चसा । मा । जिन्वतु । अप्रऽयावन् ॥५.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 3; सूक्त » 5; मन्त्र » 1
विषय - ‘पर्णमणि’ के रूप में प्रधान पुरुषों का वर्णन ।
भावार्थ -
(अयं) यह (पर्णमणिः) उत्तम ज्ञानवान्, पालन करने हारा शिरोमणि पुरुष राष्ट्र में (आ अगन्) आता हैं जो (बली) बलवान् होकर (बलेन) अपने बल से (सपत्नान्) शत्रुओं को (प्रमृणन्) विनाश करता है। वही (देवानां) समस्त दिव्य शक्तियों या राष्ट्र के देवों के (ओजः) तेज और बल का साक्षात् रूप है और (ओषधीनां) समस्त ओषधियों का (पयः) रस जिस प्रकार सब रोगों को दूर करता है उसी प्रकार वह राष्ट्र की सब त्रुटियों को दूर करता है । वही (अप्रयावन्) विना प्रयाण किये, अथवा विना प्रमाद के (मा) मुझे, राष्ट्र के कार्य करने हारे पुरुष को (वर्चसा) अपने तेजः सामर्थ्य से (जिन्वतु) ठीक २ मार्ग में प्रेरित करे ।
टिप्पणी -
(च०) ‘ मयि राष्ट्रं जिन्वत्वप्रयुच्छन्’।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - अथर्वा ऋषिः । सोमो देवता । पुरोनुष्टुप् । त्रिष्टुप् । विराड् उरोबृहती । २-७ अनुष्टुभः । अष्टर्चं सूक्तम् ॥
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