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अथर्ववेद > काण्ड 3 > सूक्त 7

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  • अथर्ववेद - काण्ड 3/ सूक्त 7/ मन्त्र 2
    सूक्त - भृग्वङ्गिराः देवता - हरिणः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - यक्ष्मनाशन सूक्त

    अनु॑ त्वा हरि॒णो वृषा॑ प॒द्भिश्च॒तुर्भि॑रक्रमीत्। विषा॑णे॒ वि ष्य॑ गुष्पि॒तं यद॑स्य क्षेत्रि॒यं हृ॒दि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अनु॑ । त्वा॒ । ह॒रि॒ण: । वृषा॑ । प॒त्ऽभि: । च॒तु:ऽभि॑: । अ॒क्र॒मी॒त् । विऽसा॑ने । वि । स्य॒ । गु॒ष्पि॒तम् । यत् । अ॒स्य॒ । क्षे॒त्रि॒यम् । हृ॒दि ॥७.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अनु त्वा हरिणो वृषा पद्भिश्चतुर्भिरक्रमीत्। विषाणे वि ष्य गुष्पितं यदस्य क्षेत्रियं हृदि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अनु । त्वा । हरिण: । वृषा । पत्ऽभि: । चतु:ऽभि: । अक्रमीत् । विऽसाने । वि । स्य । गुष्पितम् । यत् । अस्य । क्षेत्रियम् । हृदि ॥७.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 3; सूक्त » 7; मन्त्र » 2

    भावार्थ -
    हे (विषाणे) रोगनाशक सींग (त्वा अनु) तेरे उत्पन्न हो जाने के अनन्तर (वृषा हरिणः) नर हरिण (चतुर्भिः) चार (पद्भिः) चरणों से (अक्रमीत्) चौकड़ी भरने लगता है । (अस्य) इस रोगी के (हृदि) हृदय में (गुष्पितं) छिपे हुए (क्षेत्रियं) क्षय आदि रोग का तू (वि ष्य) नाना प्रकार से नाश कर । हरिण के सींग के स्पर्श से त्वचा का दोष और प्रलेप से व्रण और भस्म से क्षय, कास, श्वास और अपस्मार की व्याधि दूर होती है ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - भृग्वंगिरा ऋषिः । यक्ष्मनाशनो देवता । १-५, ७ अनुष्टुभः । ६ भुरिक् । सप्तर्चं सूक्तम् ॥

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