अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 7/ मन्त्र 2
ऋषिः - भृग्वङ्गिराः
देवता - हरिणः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - यक्ष्मनाशन सूक्त
72
अनु॑ त्वा हरि॒णो वृषा॑ प॒द्भिश्च॒तुर्भि॑रक्रमीत्। विषा॑णे॒ वि ष्य॑ गुष्पि॒तं यद॑स्य क्षेत्रि॒यं हृ॒दि ॥
स्वर सहित पद पाठअनु॑ । त्वा॒ । ह॒रि॒ण: । वृषा॑ । प॒त्ऽभि: । च॒तु:ऽभि॑: । अ॒क्र॒मी॒त् । विऽसा॑ने । वि । स्य॒ । गु॒ष्पि॒तम् । यत् । अ॒स्य॒ । क्षे॒त्रि॒यम् । हृ॒दि ॥७.२॥
स्वर रहित मन्त्र
अनु त्वा हरिणो वृषा पद्भिश्चतुर्भिरक्रमीत्। विषाणे वि ष्य गुष्पितं यदस्य क्षेत्रियं हृदि ॥
स्वर रहित पद पाठअनु । त्वा । हरिण: । वृषा । पत्ऽभि: । चतु:ऽभि: । अक्रमीत् । विऽसाने । वि । स्य । गुष्पितम् । यत् । अस्य । क्षेत्रियम् । हृदि ॥७.२॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
रोग नाश करने के लिए उपदेश।
पदार्थ
[हे मनुष्य !] (वृषा) परम ऐश्वर्यवाला (हरिणः) विष्णु भगवान् (चतुर्भिः) माँगने योग्य [अथवा चार, धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष] (पद्भिः) पदार्थों के साथ (त्वा अनु) तेरे साथ-२ (अक्रमीत्) पद जमाकर आगे बढ़ा है। (विषाणे) [परमेश्वर के] विविध दान में [उस रोग को] (विष्य) नाश कर दे (यत्) जो (क्षेत्रियम्) शरीर वा वंश का रोग (अस्य) इसके (हृदि) हृदय में (गुष्पितम्=गुफितम्) गुँथा हुआ है ॥२॥ दूसरा अर्थ−[हे मनुष्य !] (वृषा) बलवान् (हरिणः) हरिण (चतुर्भिः पद्भिः) चारों पैरों से (त्वा अनु) तेरे अनुकूल (अक्रमीत्) प्राप्त हुआ है। (विषाणे) हे सींग ! [उस रोग को] (विष्य) नाश कर दे (यत्) जो (क्षेत्रियम्) शरीर वा वंश का रोग (अस्य हृदि) इसके हृदय में (गुष्पितम्) गुंथा हुआ है ॥२॥
भावार्थ
परमेश्वर अनेक उत्तम-२ पदार्थ देकर सदा सहायक रहता है। उसकी अनन्त दया से औषधि द्वारा नीरोग रहकर अपना सामर्थ्य बढ़ावें ॥२॥ दूसरा अर्थ−मनुष्य हरिण के सींग आदि औषधि से रोगनिवृत्ति करें ॥२॥
टिप्पणी
२−(अनु)। सह। अनुकूलं व्याप्य। (त्वा)। त्वां मनुष्यम्। (हरिणः)। म० १। विष्णुः। परमेश्वरः। मृगः। (वृषा)। कनिन् युवृषितक्षि०। उ० १।१५६। इति वृषु सेचनप्रजननैश्येषु कनिन्। ऐश्वर्यवान्। इन्द्रः। (पद्भिः)। नन्दिग्रहिपचादिभ्यो ल्युणिन्यचः। पा० ३।१।१३४। इति पद स्थ्यैर्ये गतौ च-अच्। पद्दन्नोमास्०। पा० ६।१।६३ इति। पद् आदेशः। स्थातव्यैः। प्राप्तव्यैः। पदार्थैः। पादैः (चतुर्भिः)। चतेरुरन्। उ० ५।५८। इति चते याचने-उरन्। याचनीयैः। चतुःसंख्याकैर्धर्मार्थकाममोक्षैर्वा। (अक्रमीत्)। क्रमु पादविक्षेपे, गतौ-लुङ्। पादविक्षेपेण प्राप्तवान्। (विषाणे)। म० १। वि+षणु दाने-घञ्। विविधदानेन अथवा (विषाणा) इत्यस्य संबोधनम्। हे शृङ्ग। (वि, स्य)। षो अन्तकर्मणि-लोट्। विनाशय। (गुष्पितम्)। गुफ, गुम्फ ग्रन्थे-क्त। छान्दसं रूपम्। गुफितं गुम्फितं वा ग्रन्थितम्। (यत्)। यत्किंचित्। (अस्य)। समीपवर्तिनः पुरुषस्य। (क्षेत्रियम्)। रोगजातम्। (हृदि)। हृदये ॥
विषय
हद्रोग का अन्त
पदार्थ
१.हे (विषाणे) = मृगशृङ्ग! (त्वा अनु) = तेरे पीछे (वृषा हरिण:) = शक्तिशाली युवा हरिण (चतुर्भिः पद्धिः) = अपने चारों पाँवों से (अक्रमीत्) = इस क्षेत्रिय रोग पर आक्रमण करता है। मानो यह हरिण चारों पाँवों से उसे रौंद डालता है। २. हे शृङ्ग! तू (अस्य) = इस रोगी के (हदि) = हदय में (यत्) = जो (गुष्पितम्) = गुसरूप से ग्रथित-सा हुआ-हुआ (क्षेत्रियम्) = क्षेत्रिय रोग है, उसे (विष्य) = समाप्त कर दे।
भावार्थ
मृगशङ्ग हद्रोग को दूर करता है, मानो हरिण उसे चारों पैरों से रौंद-सा डालता है।
भाषार्थ
[हे क्षेत्रिय रोग!] (वृषा) सुखवर्षी (हरिण:) हरिण ने (त्वा अनु) तेरे पीछे-पीछे चलकर (चतुर्भिः पद्धिः) चार पैरों द्वारा (अक्रमीत्) तुझपर आक्रमण किया है। (विषाणे) हे सींग! (अस्य) इस रोगी के (हृदि) हृदय में (यत्) जो (क्षेत्रियम्) क्षेत्रीय-रोग (गुष्पितम्) गुम्फित हुआ है, उसे (विष्य) अन्त कर दे।
टिप्पणी
[हे क्षेत्रिय रोग!] (वृषा) सुखवर्षी (हरिण:) हरिण ने (त्वा अनु) तेरे पीछे-पीछे चलकर (चतुर्भिः पद्धिः) चार पैरों द्वारा (अक्रमीत्) तुझपर आक्रमण किया है। (विषाणे) हे सींग! (अस्य) इस रोगी के (हृदि) हृदय में (यत्) जो (क्षेत्रियम्) क्षेत्रीय-रोग (गुष्पितम्) गुम्फित हुआ है, उसे (विष्य) अन्त कर दे।
विषय
क्षेत्रिय व्याधियों का निवारण ।
भावार्थ
हे (विषाणे) रोगनाशक सींग (त्वा अनु) तेरे उत्पन्न हो जाने के अनन्तर (वृषा हरिणः) नर हरिण (चतुर्भिः) चार (पद्भिः) चरणों से (अक्रमीत्) चौकड़ी भरने लगता है । (अस्य) इस रोगी के (हृदि) हृदय में (गुष्पितं) छिपे हुए (क्षेत्रियं) क्षय आदि रोग का तू (वि ष्य) नाना प्रकार से नाश कर । हरिण के सींग के स्पर्श से त्वचा का दोष और प्रलेप से व्रण और भस्म से क्षय, कास, श्वास और अपस्मार की व्याधि दूर होती है ।
टिप्पणी
‘यदि किंचित् क्षेत्रियं हृदि’ इति पैप्प० सं० । ‘अनुत्वा हरिणो मृगः पद्भिश्रतुर्भिरक्रमीत् । विषाणे विष्य तं ग्रन्यिं यदस्य गुपितं हृदि’ इति आप० श्र० सू० ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
भृग्वंगिरा ऋषिः । यक्ष्मनाशनो देवता । १-५, ७ अनुष्टुभः । ६ भुरिक् । सप्तर्चं सूक्तम् ॥
इंग्लिश (4)
Subject
Cure of Hereditary Disease
Meaning
O man, the virile and generous deer is in harmony with your life and health specially when it strides on its four legs. O physician, value the horn and say: O horn, destroy that hereditary disease which is concentrated in the heart of this patient.
Translation
The impassioned bull-gazelle (vrsā-hariņah)has bounded after you with his four feet. O Horn, may you destroy the hereditary disease that is interwoven in the heart of this man.
Translation
Let the horn of male dear, which thoroughly developed in its head makes it to jump over with sis four feet, exterminate the-disease in woven in the heart of a patient.
Translation
O horn, after thy appearance the vigorous buck begins to bound withhis four feet, remove thou the chronic disease, deeply inwoven in the heart ofthe patient!
Footnote
The horn of a deer possesses the property of healing cough, catarrh, epilepsy, consumption and respiratory diseases.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
२−(अनु)। सह। अनुकूलं व्याप्य। (त्वा)। त्वां मनुष्यम्। (हरिणः)। म० १। विष्णुः। परमेश्वरः। मृगः। (वृषा)। कनिन् युवृषितक्षि०। उ० १।१५६। इति वृषु सेचनप्रजननैश्येषु कनिन्। ऐश्वर्यवान्। इन्द्रः। (पद्भिः)। नन्दिग्रहिपचादिभ्यो ल्युणिन्यचः। पा० ३।१।१३४। इति पद स्थ्यैर्ये गतौ च-अच्। पद्दन्नोमास्०। पा० ६।१।६३ इति। पद् आदेशः। स्थातव्यैः। प्राप्तव्यैः। पदार्थैः। पादैः (चतुर्भिः)। चतेरुरन्। उ० ५।५८। इति चते याचने-उरन्। याचनीयैः। चतुःसंख्याकैर्धर्मार्थकाममोक्षैर्वा। (अक्रमीत्)। क्रमु पादविक्षेपे, गतौ-लुङ्। पादविक्षेपेण प्राप्तवान्। (विषाणे)। म० १। वि+षणु दाने-घञ्। विविधदानेन अथवा (विषाणा) इत्यस्य संबोधनम्। हे शृङ्ग। (वि, स्य)। षो अन्तकर्मणि-लोट्। विनाशय। (गुष्पितम्)। गुफ, गुम्फ ग्रन्थे-क्त। छान्दसं रूपम्। गुफितं गुम्फितं वा ग्रन्थितम्। (यत्)। यत्किंचित्। (अस्य)। समीपवर्तिनः पुरुषस्य। (क्षेत्रियम्)। रोगजातम्। (हृदि)। हृदये ॥
बंगाली (2)
भाषार्थ
[হে ক্ষেত্রিয় রোগ !] (বৃষা) সুখবর্ষী (হরিণঃ) হরিণ (ত্বা অনু) তোমার পিছনে-পিছনে চলে (চতুর্ভিঃ পদ্ভিঃ) চার পা দ্বারা (অক্রমীৎ) তোমার ওপর আক্রমণ করেছে। (বিষাণে) হে শিং ! (অস্য) এই রোগীর (হৃদি) হৃদয়ে (যৎ) যে (ক্ষেত্রিয়ম্) ক্ষেত্রিয়-রোগ (গুষ্পিতম্) গাঁথা হয়ে আছে, তা (বিষ্য) অন্ত/বিনষ্ট করে দাও/করো।
टिप्पणी
[হরিণ হলো বর্ষা, সুখবর্ষী, অতঃ ইহা রোগ নিবারক; অথবা বর্ষা-এর অর্থ হলো সেচনসমর্থ পুমান্ হরিণ। বিষ্য = বী+ষো অন্তকর্মণি (দিবাদিঃ)] বিষাণা অর্থাত শিং-এর ভস্ম অভিপ্রেত হয়েছে। এর গুণ হলো নিউমোনিয়া, ইনফ্লুয়েঞ্জা, সর্দি, হাঁচি, পার্শ্বশূল, কাশি এবং কফের পরিহার (বৈদ্যনাথ পঞ্চাঙ্গ)। মন্ত্রে হৃদয় রোগের বিশেষ কথন হয়েছে।]
मन्त्र विषय
রোগনাশনায়োপদেশঃ
भाषार्थ
[হে মনুষ্য] (বৃষা) পরম ঐশ্বর্যশালী (হরিণঃ) বিষ্ণু ভগবান্ (চতুর্ভিঃ) প্রার্থনা/যাচনা যোগ্য [অথবা চারটি, ধর্ম, অর্থ, কাম, মোক্ষ] (পদ্ভিঃ) পদার্থ সহ (ত্বা অনু) তোমার সাথে-সাথে (অক্রমীৎ) পাদবিক্ষেপ করেছেন। (বিষাণে) [পরমেশ্বরের] বিবিধ দানের মাধ্যমে [সেই রোগ] (বিষ্য) নাশ করো (যৎ) যা (ক্ষেত্রিয়ম্) শরীর বা বংশের রোগ (অস্য) এঁর [এই মনুষ্যের] (হৃদি) হৃদয়ে (গুষ্পিতম্=গুফিতম্) গ্রন্থিত/নিহিত রয়েছে॥২॥অপর অর্থ− [হে মনুষ্য !] (বৃষা) বলবান্ (হরিণঃ) হরিণ (চতুর্ভিঃ পদ্ভিঃ) চার পা-এর সাথে (ত্বা অনু) তোমার অনুকূলে (অক্রমীৎ) প্রাপ্ত হয়েছে ॥ (বিষাণে) হে শিং ! [সেই রোগ] (বিষ্য) নাশ করো (যৎ) যে (ক্ষেত্রিয়ম্) শরীর বা বংশের রোগ (অস্য হৃদি) এর হৃদয়ে (গুষ্পিতম্) গাঁথা হয়ে আছে/গ্রন্থিত/নিহিত রয়েছে ॥২॥
भावार्थ
পরমেশ্বর বিবিধ উত্তম-উত্তম পদার্থ দ্বারা সদা সহায়ক হন। উনার অনন্ত দয়ায়, মনুষ্য ঔষধি দ্বারা নীরোগ থেকে নিজেদের সামর্থ্য বৃদ্ধি করুক ॥২॥ অপর অর্থ — মনুষ্য হরিণের শিং আদি ঔষধি দ্বারা রোগনিবৃত্তি করুক ॥২॥
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