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अथर्ववेद के काण्ड - 3 के सूक्त 7 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 7/ मन्त्र 6
    ऋषिः - भृग्वङ्गिराः देवता - यक्ष्मनाशनम् छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - यक्ष्मनाशन सूक्त
    56

    यदा॑सु॒तेः क्रि॒यमा॑णायाः क्षेत्रि॒यं त्वा॑ व्यान॒शे। वेदा॒हं तस्य॑ भेष॒जं क्षे॑त्रि॒यं ना॑शयामि॒ त्वत् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यत् । आ॒ऽसु॒ते: । क्रि॒यमा॑णाया: । क्षे॒त्रि॒यम् । त्वा॒ । वि॒ऽआ॒न॒शे । वेद॑ । अ॒हम् । तस्य॑ । भे॒ष॒जम् । क्षे॒त्रि॒यम् । ना॒श॒या॒मि॒ । त्वत् ॥७.६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यदासुतेः क्रियमाणायाः क्षेत्रियं त्वा व्यानशे। वेदाहं तस्य भेषजं क्षेत्रियं नाशयामि त्वत् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यत् । आऽसुते: । क्रियमाणाया: । क्षेत्रियम् । त्वा । विऽआनशे । वेद । अहम् । तस्य । भेषजम् । क्षेत्रियम् । नाशयामि । त्वत् ॥७.६॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 3; सूक्त » 7; मन्त्र » 6
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    रोग नाश करने के लिए उपदेश।

    पदार्थ

    (यत्) जो (क्षेत्रियम्) शरीर वा वंश का रोग (क्रियमाणायाः) बिगड़ते हुए (आसुतेः) काढ़े से (त्वा) तुझमें (व्यानशे) व्याप गया है। (अहम्) मैं (तस्य) उसका (भेषजम्) औषध (वेद) जानता हूँ। (क्षेत्रियम्) शरीर वा वंश के रोग को (त्वत्) तुमसे (नाशयामि) नाश करता हूँ ॥६॥

    भावार्थ

    विकृत औषध और विकृत अन्न के काढ़े वा पाक रस आदि से शरीर में भारी रोग व्याप जाते हैं, मनुष्य हितकारक पदार्थों का सेवन प्रयत्न करके किया करें ॥६॥

    टिप्पणी

    ६−(यत्)। यत्किञ्चित्। (आसुतेः)। आङ्+षुञ् सन्धानपीडनमन्थनेषु-क्तिन्। ओषधिपाकात्। क्वाथात्। (क्रियमाणायाः)। कृञ् वधे कर्मणि शानच्, मुक् आगमः। बध्यमानायाः। नश्यमानायाः। (क्षेत्रियम्)। म० १। महारोगः। (त्वा)। त्वां मनुष्यम्। (व्यानशे)। वि+अशू व्याप्तौ-लिट्। अश्नोतेश्च। पा० ७।४।७२। इति दीर्घीभूताद् अभ्यासाद् नुट्। व्याप्नोत्। (वेद)। जानामि। (अहन्)। उपासकः। (तस्य)। क्षेत्रियस्य। (भेषजम्)। भयनिवारकमौषधम्। (नाशयामि)। निवारयामि। (त्वत्)। त्वत्तः सकाशात् ॥

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    विषय

    विक्रियमाण आसुति से क्षेत्रिय रोग

    पदार्थ

    १. वैद्य रोगी से कहता है कि (क्रियामाणाया:) = [विक्रियमाणायाः] कुछ विकृत-से हो जानेवाले (आसुते:) = अन्न-रस से (यत्) = जो (क्षेत्रियम्) = क्षेत्रिय रोग (त्वा व्यानशे) = तुझे व्याप्त हो गया है, (अहम्) = मैं (तस्य) = उसके (भेषजम) = औषध को वेद-जानता है और अभी उस (क्षेत्रियम्) = क्षेत्रिय रोग को (त्वत् नाशयामि) = तेरे शरीर से पृथक् कर देता हूँ-इस रोग को अभी दूर किये देता हूँ। २. अन्न-रसों के विकार से ही क्षेत्रिय रोग उत्पन्न होते हैं। उनके उत्पन्न हो जाने पर वैद्य रोगी को आश्वासन देते हुए कहता है कि तू घबरा नहीं, मैं तेरे रोग को अभी दूर किये देता हूँ।

    भावार्थ

    विकृत अन्न-रस क्षेत्रिय रोगों को उत्पन्न कर देता है। समझदार वैद्य रोगी को आश्वासन देता हुआ समुचित औषध-प्रयोग से उसे स्वस्थ कर लेता है।

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    भाषार्थ

    (क्रियमाणायाः) की जानेवाली (आसुतेः) प्रसव क्रिया के होते (यत् क्षेत्रियम्) जो शारीरिक रोग (त्वा व्यानशे) तुझे व्याप्त हो गया है, (तस्य) उसके (भेषजम्) औषध को (अहम् वेद) मैं जानता हूँ, (त्वत्) तुझ से (क्षेत्रियम्) शरीर-सम्बन्धी रोग को (नाशयामि) मैं नष्ट करता हूँ।

    टिप्पणी

    १. आसुतेः=आसुति पद पञ्चम्यन्त। लौकिक संस्कृत में "आसुति" का अर्थ होता है "सुरानिर्माण"। सायण ने आसुति की व्युत्पत्ति "आ+ सिच्" (सींचने) अर्थ में की है। यथा "आसूयते आसिच्यते इत्यामुतिः, द्रवीभूतमन्नम्" द्रवीभूतमन्नम् को स्पष्ट शब्दों में सुरा सायण ने भी नहीं कहा। तथा मन्त्र में भी आसुति का अर्थ, सुरानिर्माण संगत नहीं प्रतीत होता, अपितु प्रसूति अर्थ ही सुसंगत प्रतीत होता है। [चिकित्सक कहता है प्रसवासन्ना स्त्री को कि सुत या सुता की उत्पत्ति कर्म में जो रोग हो जाता है, उसकी भेषज मैं जानता हूँ, अत: मैं तेरे रोग को नष्ट करता हूँ। इस कथन द्वारा प्रसूता को आश्वासन देता है। आसुतिः, सुत और सुता एक ही धातु के रूप हैं "षु प्रसवे"। व्यानशे = वि +आ+नुट् + अशूङ् व्याप्तौ, लिट् लकार (सायण)।]

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    विषय

    क्षेत्रिय व्याधियों का निवारण ।

    भावार्थ

    हे रोगिन् ! (क्रियमाणायाः) की जाती हुई (आसुतेः) वीर्य की आधान क्रिया यां प्रसव क्रिया से लेकर ही (यद्) जो (क्षेत्रियं) देह स्थित या वंश परम्परा से प्राप्त रोग (त्वा) तेरे शरीर में (वि आनशे) फैला हुआ है (तस्य) उस की भी मैं (भेषजं वेद) चिकित्सा जानता हूं । इसलिये (त्वत्) तेरे (क्षेत्रियं) शरीरगत या वंशागत ऐसे रोग का भी (नाशयामि) विनाश करता हूं ।

    टिप्पणी

    ‘आसुतिः द्रवीभूतमन्नम्’ इति सायणः, पानमिति संशयितो ह्रिटनिः।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    भृग्वंगिरा ऋषिः । यक्ष्मनाशनो देवता । १-५, ७ अनुष्टुभः । ६ भुरिक् । सप्तर्चं सूक्तम् ॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Cure of Hereditary Disease

    Meaning

    If a chronic disease has been afflicting you actively since your very birth, I know the remedy for that as well, and I would remove that from you.

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    Subject

    Against Yaksma - Chronic disease

    Translation

    While preparing decoction, the distilled caustic liquor has - caused this injury to you. I know the remedy for that and I hereb, ` drive away your chronic and inveterate disease. (Ksettriya = hereditary and hence chronic and inveterate or deep-rooted)

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    Translation

    I, the physician know the balm of that inveterate disease which is caused by some prepared decoction and has its affection on your body I drive away from you the other permanent diseases.

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    Translation

    If the use of impure water or foul food, hath brought inveterate diseaseon thee, I know the medicine that healeth it. I release thee from the malady.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ६−(यत्)। यत्किञ्चित्। (आसुतेः)। आङ्+षुञ् सन्धानपीडनमन्थनेषु-क्तिन्। ओषधिपाकात्। क्वाथात्। (क्रियमाणायाः)। कृञ् वधे कर्मणि शानच्, मुक् आगमः। बध्यमानायाः। नश्यमानायाः। (क्षेत्रियम्)। म० १। महारोगः। (त्वा)। त्वां मनुष्यम्। (व्यानशे)। वि+अशू व्याप्तौ-लिट्। अश्नोतेश्च। पा० ७।४।७२। इति दीर्घीभूताद् अभ्यासाद् नुट्। व्याप्नोत्। (वेद)। जानामि। (अहन्)। उपासकः। (तस्य)। क्षेत्रियस्य। (भेषजम्)। भयनिवारकमौषधम्। (नाशयामि)। निवारयामि। (त्वत्)। त्वत्तः सकाशात् ॥

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    बंगाली (2)

    भाषार्थ

    (ক্রিয়মাণায়াঃ) ক্রিয়মাণ (আসুতেঃ) প্রসব ক্রিয়ার সময় (যৎ ক্ষেত্রিয়ম্) যে শারীরিক রোগ (ত্বা ব্যানশে) তোমার মধ্যে ব্যপ্ত হয়েছে/হয়ে গেছে, (তস্য) তার (ভেষজম্) ঔষধ (অহম্ বেদ) আমি জানি, (ত্বৎ) তোমার থেকে (ক্ষেত্রিয়ম্) শরীর-সম্বন্ধী রোগকে (নাশয়ামি) আমি নষ্ট করি।

    टिप्पणी

    [প্রসবাসন্না স্ত্রী-এর প্রতি চিকিৎসকের উক্তি, সুত বা সুতা-এর উৎপত্তি কর্মে যে রোগ হয়ে যায়, তার ভেষজ আমি জানি, অতঃ আমি তোমার রোগকে নষ্ট করি। এই কথন দ্বারা প্রসূতাকে আশ্বাসন দেয়। আসুতিঃ, সুত এবং সুতা একই ধাতুর রূপ; "ষু প্রসবে"। ব্যানশে = বি+আ+নুট্ + অশূঙ্ ব্যাপ্তৌ, লিট্ লকার (সায়ণ)।] [১. আসুতেঃ=আসুতি পদ পঞ্চম্যন্ত। লৌকিক সংস্কৃতে "আসুতি" এর অর্থ হলো "সুরানির্মাণ"। সায়ণ আসুতি-এর ব্যুৎপত্তি "আ সিচ্" (সীঞ্চনে) অর্থে করেছে। যথা "আসূয়তে আসিচ্যতে ইত্যাসুতিঃ, দ্রবীভূতমন্নম্" দ্রবীভূতমন্নম্-কে স্পষ্ট শব্দে সুরা, সায়ণ বলেনি। এবং মন্ত্রেও আসুতি এর অর্থ, সুরানির্মাণ সঙ্গত প্রতীত হয় না, অপিতু প্রসূতি অর্থই সুসংগত প্রতীত হয়।]

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    मन्त्र विषय

    রোগনাশনায়োপদেশঃ

    भाषार्थ

    (যৎ) যে (ক্ষেত্রিয়ম্) শরীর বা বংশের রোগ (ক্রিয়মাণায়াঃ) নাশমান (আসুতেঃ) ক্বাথের মাধ্যমে (ত্বা) তোমার মধ্যে (ব্যানশে) ব্যাপ্ত হয়ে গেছে। (অহম্) আমি (তস্য) তার (ভেষজম্) ঔষধ (বেদ) জানি। (ক্ষেত্রিয়ম্) শরীর বা বংশের রোগকে (ত্বৎ) তোমার থেকে (নাশয়ামি) বিনাশ করি॥৬॥

    भावार्थ

    বিকৃত ঔষধ এবং বিকৃত অন্নের ক্বাথ(decoction) বা পাক রস আদির মাধ্যমে শরীরে কঠিন রোগ ব্যাপ্ত হয়ে যায়, মনুষ্য হিতকারক পদার্থের সেবনের চেষ্টা করুক ॥৬॥

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