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अथर्ववेद के काण्ड - 3 के सूक्त 7 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 7/ मन्त्र 5
    ऋषिः - भृग्वङ्गिराः देवता - आपः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - यक्ष्मनाशन सूक्त
    62

    आप॒ इद्वा उ॑ भेष॒जीरापो॑ अमीव॒चात॑नीः। आपो॒ विश्व॑स्य भेष॒जीस्तास्त्वा॑ मुञ्चन्तु क्षेत्रि॒यात् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आप॑: । इत् । वै । ऊं॒ इति॑ । भे॒ष॒जी: । आप॑: । अ॒मी॒व॒ऽचात॑नी: । आप॑: । विश्व॑स्य । भे॒ष॒जी: । ता: । त्वा॒ । मु॒ञ्च॒न्तु॒ । क्षे॒त्रि॒यात् ॥७.५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आप इद्वा उ भेषजीरापो अमीवचातनीः। आपो विश्वस्य भेषजीस्तास्त्वा मुञ्चन्तु क्षेत्रियात् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आप: । इत् । वै । ऊं इति । भेषजी: । आप: । अमीवऽचातनी: । आप: । विश्वस्य । भेषजी: । ता: । त्वा । मुञ्चन्तु । क्षेत्रियात् ॥७.५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 3; सूक्त » 7; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    रोग नाश करने के लिए उपदेश।

    पदार्थ

    (आपः) सर्वव्यापक परमेश्वर वा जल (इत् वै उ) अवश्य ही (भेषजीः=०−ज्यः) भयनिवारक है, (आपः) परमेश्वर, वा जल (अमीवचातनीः=०−न्यः) पीड़ानाशक है। (आपः) परमेश्वर वा जल (विश्वस्य) सबका (भेषजीः) भयनिवारक है, (ताः) वह (त्वा) तुझको (क्षेत्रियात्) शरीर वा वंश के दोष वा रोग से (मुञ्चन्तु) छुड़ावे ॥५॥

    भावार्थ

    परमेश्वर ने मनुष्य को बुद्धि, नेत्र, हस्तादि, सूर्य, चन्द्र, पृथिवी आदि और अन्नादि पदार्थ देकर बड़ा उपकार किया है, सो हम भी उसको धन्यवाद देते हुए सबके साथ उपकार करें और खेती आदि में जल के सुप्रयोग से पुरानी और नवी दरिद्रता और स्नान आदि में प्रयोगों से सब रोग नाश करें ॥५॥ ‘आपः’ शब्द नित्य स्त्रीलिङ्ग बहुवचनान्त है, इसी से उसके विशेषण भी स्त्रीलिङ्ग बहुवचनान्त हैं। ‘आपः’ शब्द परमेश्वरवाची भी है, प्रमाण में अगला मन्त्र है। उसमें एकवचनान्त शब्दों के साथ प्रयोग से उसका अर्थ एक परमेश्वर का है ॥ तदे॒वाग्निस्तदा॑दि॒त्यस्तद्वा॒युस्तदु॑ च॒न्द्रमा॑। तदे॒व शु॒क्रं तद् ब्र॒ह्म ता आपः॒ स प्र॒जापतिः ॥ (तत्) विस्तार करनेवाला प्रसिद्ध ब्रह्म (एव) ही (अग्निः) ज्ञानस्वरूप, (तत्) ब्रह्म ही (आदित्यः) प्रकाशस्वरूप, (तत्) ब्रह्म ही (वायुः) गतिशील बलवान् और (तत् उ) ब्रह्म ही (चन्द्रमाः) आनन्दकारक है। (तत् एव) ब्रह्म ही (शुक्रम्) शुक्ल वा शुद्धस्वभाव, (तत्) सब में विस्तृत ब्रह्म (ब्रह्म) महान् (ताः) वही (आपः) सर्वव्यापक और (सः) वही (प्रजापतिः) प्रजापालक है ॥ तनोति विस्तारयतीति तद् ब्रह्म। तनु विस्तारे अदिः, स च डित् (उ० १।१३२) ॥

    टिप्पणी

    ५−(आपः)। अ० १।४।३। सर्वव्यापकः परमेश्वरः। जलानि। (इत्, वै, उ)। इति सर्वेऽवधारणे। अत्यन्तनिश्चयेन। (भेषजीः)। भेषं भयं जयतीति भेषजम्। भेष+जि-उ। केवलमामकभागधेय०। पा० ४।१।३०। इति भेषज, ङीप्। वा छन्दसि। पा० ६।१।१०६। इति जसि पूर्वसवर्णदीर्घः। भेषज्यः। भयनिवारिकाः। (अमीवचातनीः)। अ० १।२८।१। रोगाणां नाशयित्र्यः। पीडानाशिकाः। (विश्वस्य)। सर्वस्य। (त्वा)। त्वां मनुष्यम्। (मुञ्चन्तु)। मोचयन्तु। वियोजयन्तु, इत्यर्थः। (क्षेत्रियात्)। महारोगात् ॥

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    विषय

    आपः

    पदार्थ

    १. (आप:) = जल (इत् वा उ) = निश्चय से (भेषजी:) = औषध हैं। (आप:) = ये जल (अमीवचतनी:) = रोगों के नाशक हैं। (आप:) = जल (विश्वस्य भेषजी:) = सब रोगों के औषध हैं। (ता:) = वे जल (त्वा) = तुझे (क्षेत्रियात्) = क्षेत्रिय रोगों से (मुञ्चन्तु) = छुड़ाएँ।

    भावार्थ

    जल सवौषधमय हैं। इनके ठीक प्रयोग से सब रोग दूर हो जाते हैं।

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    भाषार्थ

    (आपः) जल (इत्) ही (वै उ) निश्चय से (भेषजीः) भेषज अर्थात् औषधरूप हैं, (आप:) जल (अमीवचातनी:) रोगविनाशक हैं। (आप:) जल (विश्वस) समग्र प्रकार के रोग समूह की (भेषजी:) औषध हैं। (ता:) वे जल (त्वा) तुझे (क्षेत्रियात्) शारीरिक रोग से (मुञ्चन्तु) मुक्त करें, छुड़ाएं।

    टिप्पणी

    [आपः अर्थात जलचिकित्सा को सब प्रकार के रोगों की नाशिका कहा है। अमीव=अम रोगे (चुरादि:) आपः के लिए, देखो अथव० १।४।४; १।५।१-४; १।६।२, ३, ४)।]

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    विषय

    क्षेत्रिय व्याधियों का निवारण ।

    भावार्थ

    (आपः इद् वा उ) आपः=जल ही (भेषजीः) स्वयं रोगहारक उत्तम औषध हैं, क्योंकि (आपः) जल ही (अमीवचातनीः) रोग-जन्तुओं का नाश करने में समर्थ है। (आपः विश्वस्य भेषजीः) जलों से ही समस्त रोगी की चिकित्सा हो जाती है। (ताः त्वा) वे जल ही तुझे (क्षेत्रियात्) शरीरगत, परम्परा प्राप्त पैतृक रोगों से भी (मुञ्चन्तु) छुड़ा दे सकते हैं । जल-चिकित्सा का विस्तृत रहस्य अंगविद्या आयुर्वेद से जानना चाहिये, जल के द्वारा नेति, धौति, वस्ति, क्रिया एवं धारा स्नान, मार्जन, तर्पण, स्वेदन आदि विविध उपचारों से कुष्ठ एवं त्वचा के समस्त रोग, ज्वर और रक्तविकार और हृदयरोग, मस्तिष्क रोग और वीर्यदोष शान्त किये जाते हैं ।

    टिप्पणी

    (तृ०) ‘आपः सर्वस्य’ इति ऋ० (च०) ‘तास्ते कृण्वन्तु भेषजम्’, अथर्व ६ । ९१ । ३ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    भृग्वंगिरा ऋषिः । यक्ष्मनाशनो देवता । १-५, ७ अनुष्टुभः । ६ भुरिक् । सप्तर्चं सूक्तम् ॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Cure of Hereditary Disease

    Meaning

    And waters are the basic sanatives. Waters are destroyers of ailment and malignity. Waters are the universal cure. May the waters relieve the patient of the chronic hereditary disease.

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    Subject

    Apah

    Translation

    Waters are verily the remedies, waters are dispeller of diseases. Waters are cure of all, may they make you free from the hereditary disease.(Āpah = waters. always in feminine and in plural)

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    Translation

    The waters have indeed the healing power, waters destroy the disease, the waters are the healing balm of all diseases and let them free you from inherited diseases.

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    Translation

    Water, indeed, hath power to heal. Water drives malady away. May water, the curer of all diseases, free thee from permanent disease.

    Footnote

    “Thee” refers to the patient.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ५−(आपः)। अ० १।४।३। सर्वव्यापकः परमेश्वरः। जलानि। (इत्, वै, उ)। इति सर्वेऽवधारणे। अत्यन्तनिश्चयेन। (भेषजीः)। भेषं भयं जयतीति भेषजम्। भेष+जि-उ। केवलमामकभागधेय०। पा० ४।१।३०। इति भेषज, ङीप्। वा छन्दसि। पा० ६।१।१०६। इति जसि पूर्वसवर्णदीर्घः। भेषज्यः। भयनिवारिकाः। (अमीवचातनीः)। अ० १।२८।१। रोगाणां नाशयित्र्यः। पीडानाशिकाः। (विश्वस्य)। सर्वस्य। (त्वा)। त्वां मनुष्यम्। (मुञ्चन्तु)। मोचयन्तु। वियोजयन्तु, इत्यर्थः। (क्षेत्रियात्)। महारोगात् ॥

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    बंगाली (2)

    भाषार्थ

    (আপঃ) জল (ইত্র)(বৈ উ) নিশ্চিতরূপে (ভেষজীঃ) ভেষজ অর্থাৎ ঔষধরূপ, (আপঃ) জল (অমীবচাতনীঃ) রোগবিনাশক। (আপঃ) জল (বিশ্বস্য) সমগ্র প্রকারের রোগ সমূহের (ভেষজীঃ) ঔষধ। (তাঃ) সেই জল (ত্বা) তোমাকে (ক্ষেত্রিয়াৎ) শারীরিক রোগ থেকে (মুঞ্চন্তি) মুক্ত করুক।

    टिप्पणी

    [আপঃ অর্থাৎ জলচিকিৎসাকে সকল প্রকারের রোগের নাশিকা বলা হয়েছে। অমীব=অম রোগে (চুরাদিঃ) আপঃ এর জন্য, দেখো অথর্ব০ ১।৪।৪; ১।৫।১-৪; ১।৬।২, ৩, ৪)।]

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    मन्त्र विषय

    রোগনাশনায়োপদেশঃ

    भाषार्थ

    (আপঃ) সর্বব্যাপক পরমেশ্বর বা জল (ইৎ বৈ উ) অবশ্যই (ভেষজীঃ=০−জ্যঃ) ভয় নিবারক, (আপঃ) পরমেশ্বর, বা জল (অমীবচাতনীঃ=০−ন্যঃ) পীড়ানাশক। (আপঃ) পরমেশ্বর বা জল (বিশ্বস্য) সবকিছুর (ভেষজীঃ) ভয় নিবারক, (তাঃ) তিনি/তা (ত্বা) তোমাকে (ক্ষেত্রিয়াৎ) শরীর বা বংশের দোষ বা রোগ থেকে (মুঞ্চন্তু) মুক্ত করুক/করবে ॥৫॥

    भावार्थ

    পরমেশ্বর মনুষ্যকে বুদ্ধি, নেত্র, হস্তাদি, সূর্য, চন্দ্র, পৃথিব্যাদি এবং অন্নাদি পদার্থ দ্বারা অনেক উপকার করেছেন, সুতরাং আমরাও যেন উনাকে ধন্যবাদ দিয়ে সকলের সাথে উপকার করি এবং কৃষিজমি আদিতে জলের সুপ্রয়োগ দ্বারা পুরানো এবং নবীন দরিদ্রতা এবং স্নান আদিতে প্রয়োগের দ্বারা সমস্ত রোগ নাশ করি ॥৫॥ ‘আপঃ’ শব্দ নিত্য স্ত্রীলিঙ্গ বহুবচনান্ত, এর থেকেই তার বিশেষণও স্ত্রীলিঙ্গ বহুবচনান্ত। ‘আপঃ’ শব্দ পরমেশ্বরবাচীও, প্রমাণস্বরূপ আগামী মন্ত্র রয়েছে। তার মধ্যে একবচনান্ত শব্দের সাথে প্রয়োগ দ্বারা তার অর্থ এক পরমেশ্বরের ॥ তদেবাগ্নিস্তদাদিত্যস্তদ্বায়ুস্তদু চন্দ্রমা। তদেব শুক্রং তদ্ ব্রহ্ম তা আপঃ স প্রজাপতিঃ ॥ (তৎ) বিস্তারকারী প্রসিদ্ধ ব্রহ্ম (এব) ই (অগ্নিঃ) জ্ঞানস্বরূপ, (তৎ) ব্রহ্মই (আদিত্যঃ) প্রকাশস্বরূপ, (তৎ) ব্রহ্মই (বায়ুঃ) গতিশীল বলবান্ এবং (তৎ উ) ব্রহ্মই (চন্দ্রমাঃ) আনন্দকারক। (তৎ এব) ব্রহ্মই (শুক্রম্) শুক্ল বা শুদ্ধস্বভাবযুক্ত, (তৎ) সবকিছুর মধ্যেই বিস্তৃত ব্রহ্ম (ব্রহ্ম) মহান্ (তাঃ) তিনিই (আপঃ) সর্বব্যাপক এবং (সঃ) তিনিই (প্রজাপতিঃ) প্রজাপালক ॥ তনোতি বিস্তারয়তীতি তদ্ ব্রহ্ম। তনু বিস্তারে অদিঃ, স চ ডিৎ (উ০ ১।১৩২) ॥

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